श्लोक 36 के भावः
आचार्यश्री मानतुंगजी ने तीर्थंकर के एक अतिशय - तीर्थंकर जब चलते हैं तो देवता उनके पैरों के नीचे स्वर्ण कमल बना देते हैं, का वर्णन किया है।
आचार्यश्री मानतुंगजी ने तीर्थंकर के एक अतिशय - तीर्थंकर जब चलते हैं तो देवता उनके पैरों के नीचे स्वर्ण कमल बना देते हैं, का वर्णन किया है।
आचार्यश्री कहते हैं - हे जिनेन्द्र! नूतन स्वर्ण कमलों के समूह के समान दिव्य कान्ति वाले तथा सब ओर फैलने वाली नख किरणों की ज्योति से अतीव सुन्दर लगने वाले आपके पवित्र चरण जहाँ - जहाँ आपके चरण पड़ते हैं भक्त देवता गण वहाँ वहाँ स्वर्ण कमलों की रचना करते जाते हैं। ये स्वर्ण कमल कभी न मुर्झाने वाले हैं, सदा खिले ही रहते हैं।
ऐसा माना जात है कि कोटि-कोटि देवता सदा प्रभु की सेवा में रहते हैं। जब हम भक्ति के साथ प्रभु के दिव्य प्रकाशमान चरणों की कल्पना करते हैं और भावना करते हैं कि ये दिव्य चरण हमारे जीवन में आत्मिक समृद्धि का दिव्य प्रकाश लेकर आ रहे हैं। प्रभु के नख-शिख से निकलती स्वर्ण किरणें हमारे अंतर में पापकर्म के अन्धकार को मिटाते हुए ज्ञान के प्रकाश को फैला रही हैं। पूर्ण समर्पण एवं भक्ति पूर्वक प्रभु की इस भाव आराधना से प्रभु की सेवा में रह रहे देवता हमारी समृद्धि का कारक बनते हैं।
श्लोक 37 के भावः
आचार्यश्री समवसरण का सिंहावलोकन कर रहे हैं। वे कहते हैं-प्रभो ! जिस समवसरण में विराजकर आप धर्मोपदेश कर रहे हैं, उस समवसरण में मैंने आपकी जो विभूति देखी, वह अन्यत्र नहीं मिली। अशोक वृक्ष, सिंहासन, चामर, दिव्य छत्र, दिव्य ध्वनि - यह विभूति पर में नहीं दिखाई दी। “पर” का अर्थ है अवीतराग । आचार्यश्री कह रहे हैं- आपकी जो विभूति प्रकट हुई है वह वीतरागता के कारण हुई है. कर्मक्षय के कारण हुई है। आगे वे अपनी बात समझाते हुए कह रहे हैं- अंधकार का नाश करने वाले सूर्य की जैसी प्रभा होती है, वैसी प्रभा चमकते हुए तारों, नक्षत्रों आदि की कैसे हो सकती है?
समवसरण में तीर्थंकर प्रभु के पूर्ण ज्ञान की दशा प्रकट होती है, केवलज्ञान की ज्योति से सारा लोक प्रकाशमान हो जाता है। समवसरण में प्रभु की ध्वनि एक योजन तक सुनाई देती है तथा सत्यधर्म का रहस्य जो प्रभु बता रहे हैं वह सभी जीवों को उनकी भाषा में समझ में आता है।
ऐसे दिव्य समवसरण की भावपूर्वक कल्पना करते हुए अपने आप को प्रभु के सामिप्य में अनुभव करते हुए भावना करें कि प्रभु आदिनाथ के दिव्य प्रभाव से हमारे अंतर के सभी कषाय (क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ आदि) समाप्त होते जा रहे हैं और प्रभु के दिव्य शान्तिप्रदाता तेज से हमारे अंतर-आत्मा में सुख, शान्ति, आनन्द की अमृत धारा प्रवाहित हो रही है।
इस श्लोक की नियमित साधना से अंतर में कषायों के समापन के साथ ही निर्मल भावों की जागृति प्रारम्भ होती है।
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com