Wednesday, 26 December 2018

भक्तामर स्तोत्र : शुद्ध उच्चारण का महत्व

आचार्यश्री मानतुंगसूरि जी की इस महान रचना के विषय में आप सभी परिचित होंगे। इस स्तोत्र की रचना लगभग 1000 वर्ष पूर्व राजा भोज के काल में हुई। इसकी रचना के विषय में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। लेकिन सभी का सार यही है कि आचार्यश्री प्रभु ऋषभदेव के ध्यान में इस प्रकार तल्लीन हो गये कि एक-एक श्लोक की रचना होती गयी और एक-एक कर बेड़ियाँ टूटती गयीं।

भक्तामर स्तोत्र विनय, समर्पण और भक्ति का एक अनुपम उदाहरण है। भक्तामर स्तोत्र अर्थात आत्मा-परमात्मा का सम्मिलन, उसका दर्शन और चिन्तन है।
 
इस स्तोत्र में आचार्यश्री ने परमात्मा के अनुपम गुणों का और वीतरागभाव का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। भक्तामर स्तोत्र का प्रक्येक श्लोक अपने आप में अतुल्य है, अद्भुत है, दिव्यता से परिपूर्ण है।

हम सभी ने गुरुभगवन्तों से सुना है कि प्रत्येक आत्मा में अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख, अनन्त-शक्ति विद्यमान है।

भक्तामर स्तोत्र के विनय, समर्पण और भक्तिभाव पूर्ण शुद्ध वाचन से उत्पन्न नाद हमारे अंतर में छिपी हुई इस अमोघ शक्ति को जागृत करने लगता है। विनय और समर्पण भाव से की जाने वाली इस भक्ति प्रक्रिया में शरीर में दिव्य ऊर्जा का ऊजागरण होता है जो हमारे आत्मिक उत्थान के साथ-साथ अभीष्ट सिद्धी का कारक बनता है।

हम अक्सर यह अनुभव करते हैं, सुनते हैं कि अमुक स्तोत्र के पाठ से ये लाभ होगा, वो लाभ होगा परन्तु उसके जप आदि के बाद भी वांछित प्राप्ति न होने पर निराशा और अश्रद्धा के भाव मन में आने लगते हैं।

क्या हमनें इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि इसके पीछे क्या
कारण हो सकता है?

इसका कारण है आज विनयशीलता, समर्पणभाव और श्रद्धा के साथ-साथ स्तोत्र एवं मंत्रों के सही उच्चारण और भावों की जानकारी का अभाव।

जब तक हम स्तोत्र पाठ करते हुए उसमें तल्लीन नहीं होते, उसके भावों को आत्मा में उतारना शुरु नहीं करते और शुद्ध उच्चारण की जानकारी नहीं रखते तब तक हमारे अंतर में उस दिव्य ऊर्जा के जागरण में हम सफल नहीं हो सकते।

हमारे देश में संस्कृत के महानतम व्याकरणविद हुए हैं आचार्य पाणिनी। उन्होंने एक श्लोक में उच्चारण शुद्धता का महत्व कुछ इस प्रकार बताया हैः
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तदर्थमाह ।

 स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ।।
अर्थात् - स्वर (accent) अथवा वर्ण से अशुद्ध उच्चरित हीन मन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता (जिसके लिए उच्चारण किया जाता है) । वह वाग् रूपी वज्र यजमान को नष्ट करता है, जैसे स्वर के अपराध से इन्द्रशत्रु ने किया ।
 त्वष्टा नाम के असुर ने अपने पुत्र वृत्रासुर की वृद्धि के लिए एक यज्ञ किया था, जिसमें “इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व” (अर्थात् इन्द्रशत्रु की वृद्धि हो) मन्त्र में इन्द्रशत्रु पद का उच्चारण “इन्द्रः शत्रुर्वर्धस्व” पद के रूप में कर दिया गया, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का शत्रु (मारनेवाला), यह अर्थ प्रकट हो गया । फलतः इन्द्र द्वारा वृत्रासुर मारा गया ।
     [ सन्दर्भः पं० युधिष्ठिर मीमांसक (1985):"वैदिक-स्वर-मीमांसा", पृ० 55 ]

सरल शब्दों में, अशुद्ध उच्चरित मंत्र उस अर्थ को नहीं कहता जिसके लिए उच्चारण किया जाता है। अशुद्ध उच्चारित मंत्र साधक को लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकता है।

एक और उदाहरण हमें मिलता है कुम्भकरण का। जिसने ब्रह्मा से वरदान में इंद्र आसन मांगते समय गलती से इंन्द्रासन की जगह निंद्रासन का गलत उच्चारण कर वरदान को अभिषाप में बदल लिया था।

इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं।

हम इस महान स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण की सरल विधि को समझेंगे, तत्पश्चात् इसके भावों को समझते हुए अपने आत्म उन्नति के पथ पर आगे बढ़ेंगे। आपके मूल्यवान सुझाव सादर अपेक्षित हैं। - राजेश सुराना (पुणे)

Sunday, 23 December 2018

भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य अनुभूति - 2


भक्तामर स्तोत्र एक महान स्तोत्र है। इसकी रचना विशेष परिस्थिति में हुई। उसके संदर्भ में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। जहाँ शक्तिशाली स्तोत्र होता है वहां उसके साथ चमत्कार की अनेक घटनाएं जुड़ जाती हैं। भक्तामर के साथ भी चमत्कार की घटना जुड़ी हुई है। जब आचार्य श्री मानतुंगसूरि जी ने भक्तामर की रचना की तो चमत्कार घटित हो गया। कड़ियाँ टूटती चली गयीं, बंधन टूट गये।

यह चमत्कार केवल शब्दों को बोलने मात्र से घटित नहीं होता है। जब तक शब्दों के साथ भावना का योग नहीं मिलता, उसके अर्थ के साथ तल्लीन नहीं हो जाते, अपने आराध्य में लीन नहीं होते तब तक शक्ति का विस्फोट नहीं होता। भावना पुष्ट होती है, उच्चारण शुद्ध होता है तो मंत्र, स्तोत्र शक्तिशाली बन जाते हैं।

सफलता तब मिलती है जब शब्द, अर्थ का ज्ञान और अभिन्नता की अनुभूति ये तीनों एक साथ होती हैं। शब्द का सही उच्चारण, अर्थ का ज्ञान और आराध्य के साथ एकात्मकता - ये तीनों सफलता के लिए बहुत आवश्यक है।

जिसने समर्पण कर दिया। अपने आराध्य के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया वह लक्ष्य को प्राप्त करता है। आचार्यश्री पूर्ण विनय एवं समर्पण भाव से भगवान ऋषभदेव की स्तुति में तन्मय हो गये। एक-एक श्लोक की - अपूर्व भावों की धारा बहने लगी और कड़ियाँ खुलती चली गयीं।

इसका हर श्लोक दिव्यता प्रदान करने वाला है। बस आवश्यकता है उसके साथ सही रूप में हम जुड़ सकें। प्रत्येक श्लोक के साथ जब हम भाव पूर्णता के साथ जुड़ना शुरु करते हैं तो हम स्वयं के अंतर में उतरते चले जाते हैं। आत्मा और परमात्मा के तार आपस में जुड़ने लगते हैं और उत्तम भावों के दिव्य प्रभाव से आत्मा के अंतर में स्थित शुभ्रता की जागृति शुरु होती है अज्ञान का अंधकार छटने लगता है और शुरु हो जाता है हमारा आध्यात्मिक, आत्मिक विकास का दौर।

कहा भी गया है कि हमारी आत्मा अनन्त शक्ति का  स्रोत है, हमें इस शक्ति को जागरुक करने की जरूरत है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक ‘‘भक्तामर : अंतःस्तल का स्पर्श’’, आचार्य श्रीमद् विजय राजयशसूरि जी म. के “भक्तामर दर्शन” तथा श्री श्रीचन्द “सरस” जी की भक्तामर महिमा तथा “सचित्र भक्तामर स्तोत्र” आदि भक्तामर के विषय में अत्यन्त नयनाभिराम, सारगर्भित रचनाएं हैं जो हमें भक्तामर के दिव्य प्रभावों की जानकारी सहज और सरल रूप में उपलब्ध कराती हैं।

हम आगे एक-एक श्लोक के भावों को समझने का प्रयास करेंगे और इसके भक्तिरस का आनन्द अनुभव करेंगे।- राजेश सुराना (पुणे)

Thursday, 20 December 2018

भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य अनुभूति






भक्तामर स्तोत्र जैन परम्परा में सर्व मान्य महाप्रभाविक दिव्य स्तोत्र है। इस स्तोत्र में प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ प्रभु की स्तुति के माध्यम से स्तुतिकार भक्त आचार्य श्री मानतुंग विनय एवं समर्पण के सोपान चढ़ते हुए अपने आराध्यदेव के साथ घनिष्ट एकाग्रता की अनुभूति करने लगते हैं। परमात्मा की अनन्त शक्तियों का पारस स्पर्श पाकर जैसे स्वयं के भीतर अनन्त शक्ति का जागरण एवं प्रस्फुटन अनुभव करते हैं।

विनय और समर्पण के उत्तम भावों के फलस्वरूप शरीर में दिव्य ऊर्जा का उजागरण होता है और स्तोत्रकार जब अपने मोहजन्य बंधनों से मुक्त होता है तो उसकी समत्व शक्ति से सारे बन्धन स्वयं खुलते चले जाते हैं।

यह स्तोत्र मंत्रगर्भित स्तोत्र है। इसका प्रत्येक चरण, पद और अक्षर चमत्कारी है। इसमें मंत्रों के अक्षरों की ऐसी संयोजना की गयी है कि इनके शुद्ध उच्चारित स्तोत्र-जाप के महाप्रभाव से सारा काम अपने आप हो जाता है।

जब भक्त पूर्ण समर्पण भाव से अपने आराध्य से जुड़ जाता है तो शुद्ध आत्म भावों में विचरण करने लगता है। इसके प्रभाव से पुण्य कर्म तो साथ में ही उत्पन्न हो जाते हैं जिन्हें हम चमत्कार के रूप में अनुभव करने लगते हैं।

आचार्यश्री मानतुंगजी के उत्तरवर्ती आचार्यों ने भक्तामर के कई कल्प तैयार किये हैं। भक्तामर के हर श्लोक की विधि, हर श्लोक का मंत्र-तंत्र, इन सबकी रचना की तथा उनके लाभों का वर्णन किया है।

वास्तव में भक्तामर स्तोत्र परमार्थ का समुच्चय है। परमार्थ मिलने पर भक्त को यह स्तोत्र ऋद्धि, सिद्धि और आत्मिक सुख को सुलभ कराता है। इसका प्रत्येक श्लोक ही अपने आप में इतना भव्य एवं दिव्य है कि उसका श्रद्धा और समर्पण से विनयपूर्वक किया गया शुद्ध उच्चारण सहित जाप ही हमारे आत्मिक उत्थान का कारक बन जाता है। 

इस विषय की अन्य महत्वपूर्ण रोचक जानकारियाँ हम शीघ्र ही पब्लिश करेंगे । यदि आप भक्तामर से सम्बन्धित कोई जिज्ञासा अथवा जानकारी चाहते हों तो लिखने की कृपा करें । हम आपकी जिज्ञासा समाधान का प्रयास करेंगे  -राजेश सुराना