आचार्यश्री मानतुंगसूरि जी की इस महान रचना के विषय में आप सभी परिचित होंगे। इस स्तोत्र की रचना लगभग 1000 वर्ष पूर्व राजा भोज के काल में हुई। इसकी रचना के विषय में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। लेकिन सभी का सार यही है कि आचार्यश्री प्रभु ऋषभदेव के ध्यान में इस प्रकार तल्लीन हो गये कि एक-एक श्लोक की रचना होती गयी और एक-एक कर बेड़ियाँ टूटती गयीं।
भक्तामर स्तोत्र विनय, समर्पण और भक्ति का एक अनुपम उदाहरण है। भक्तामर स्तोत्र अर्थात आत्मा-परमात्मा का सम्मिलन, उसका दर्शन और चिन्तन है।
भक्तामर स्तोत्र विनय, समर्पण और भक्ति का एक अनुपम उदाहरण है। भक्तामर स्तोत्र अर्थात आत्मा-परमात्मा का सम्मिलन, उसका दर्शन और चिन्तन है।
इस स्तोत्र में आचार्यश्री ने परमात्मा के अनुपम गुणों का और वीतरागभाव का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। भक्तामर स्तोत्र का प्रक्येक श्लोक अपने आप में अतुल्य है, अद्भुत है, दिव्यता से परिपूर्ण है।
हम सभी ने गुरुभगवन्तों से सुना है कि प्रत्येक आत्मा में अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख, अनन्त-शक्ति विद्यमान है।
भक्तामर स्तोत्र के विनय, समर्पण और भक्तिभाव पूर्ण शुद्ध वाचन से उत्पन्न नाद हमारे अंतर में छिपी हुई इस अमोघ शक्ति को जागृत करने लगता है। विनय और समर्पण भाव से की जाने वाली इस भक्ति प्रक्रिया में शरीर में दिव्य ऊर्जा का ऊजागरण होता है जो हमारे आत्मिक उत्थान के साथ-साथ अभीष्ट सिद्धी का कारक बनता है।
हम अक्सर यह अनुभव करते हैं, सुनते हैं कि अमुक स्तोत्र के पाठ से ये लाभ होगा, वो लाभ होगा परन्तु उसके जप आदि के बाद भी वांछित प्राप्ति न होने पर निराशा और अश्रद्धा के भाव मन में आने लगते हैं।
क्या हमनें इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
इसका कारण है आज विनयशीलता, समर्पणभाव और श्रद्धा के साथ-साथ स्तोत्र एवं मंत्रों के सही उच्चारण और भावों की जानकारी का अभाव।
जब तक हम स्तोत्र पाठ करते हुए उसमें तल्लीन नहीं होते, उसके भावों को आत्मा में उतारना शुरु नहीं करते और शुद्ध उच्चारण की जानकारी नहीं रखते तब तक हमारे अंतर में उस दिव्य ऊर्जा के जागरण में हम सफल नहीं हो सकते।
हमारे देश में संस्कृत के महानतम व्याकरणविद हुए हैं आचार्य पाणिनी। उन्होंने एक श्लोक में उच्चारण शुद्धता का महत्व कुछ इस प्रकार बताया हैः
हम सभी ने गुरुभगवन्तों से सुना है कि प्रत्येक आत्मा में अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख, अनन्त-शक्ति विद्यमान है।
भक्तामर स्तोत्र के विनय, समर्पण और भक्तिभाव पूर्ण शुद्ध वाचन से उत्पन्न नाद हमारे अंतर में छिपी हुई इस अमोघ शक्ति को जागृत करने लगता है। विनय और समर्पण भाव से की जाने वाली इस भक्ति प्रक्रिया में शरीर में दिव्य ऊर्जा का ऊजागरण होता है जो हमारे आत्मिक उत्थान के साथ-साथ अभीष्ट सिद्धी का कारक बनता है।
हम अक्सर यह अनुभव करते हैं, सुनते हैं कि अमुक स्तोत्र के पाठ से ये लाभ होगा, वो लाभ होगा परन्तु उसके जप आदि के बाद भी वांछित प्राप्ति न होने पर निराशा और अश्रद्धा के भाव मन में आने लगते हैं।
क्या हमनें इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
इसका कारण है आज विनयशीलता, समर्पणभाव और श्रद्धा के साथ-साथ स्तोत्र एवं मंत्रों के सही उच्चारण और भावों की जानकारी का अभाव।
जब तक हम स्तोत्र पाठ करते हुए उसमें तल्लीन नहीं होते, उसके भावों को आत्मा में उतारना शुरु नहीं करते और शुद्ध उच्चारण की जानकारी नहीं रखते तब तक हमारे अंतर में उस दिव्य ऊर्जा के जागरण में हम सफल नहीं हो सकते।
हमारे देश में संस्कृत के महानतम व्याकरणविद हुए हैं आचार्य पाणिनी। उन्होंने एक श्लोक में उच्चारण शुद्धता का महत्व कुछ इस प्रकार बताया हैः
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तदर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ।।
अर्थात् - स्वर (accent) अथवा वर्ण से अशुद्ध उच्चरित हीन मन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता (जिसके लिए उच्चारण किया जाता है) । वह वाग् रूपी वज्र यजमान को नष्ट करता है, जैसे स्वर के अपराध से इन्द्रशत्रु ने किया ।
त्वष्टा नाम के असुर ने अपने पुत्र वृत्रासुर की वृद्धि के
लिए एक यज्ञ किया था, जिसमें “इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व” (अर्थात् इन्द्रशत्रु
की वृद्धि हो) मन्त्र में इन्द्रशत्रु पद का उच्चारण “इन्द्रः
शत्रुर्वर्धस्व” पद के रूप में कर दिया गया, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का शत्रु (मारनेवाला), यह अर्थ प्रकट हो गया । फलतः इन्द्र द्वारा वृत्रासुर मारा गया ।
[ सन्दर्भः पं० युधिष्ठिर मीमांसक (1985):"वैदिक-स्वर-मीमांसा", पृ० 55 ]
[ सन्दर्भः पं० युधिष्ठिर मीमांसक (1985):"वैदिक-स्वर-मीमांसा", पृ० 55 ]
सरल शब्दों में, अशुद्ध उच्चरित मंत्र उस अर्थ को नहीं कहता जिसके लिए उच्चारण किया जाता है। अशुद्ध उच्चारित मंत्र साधक को लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकता है।
एक और उदाहरण हमें मिलता है कुम्भकरण का। जिसने ब्रह्मा से वरदान में इंद्र आसन मांगते समय गलती से इंन्द्रासन की जगह निंद्रासन का गलत उच्चारण कर वरदान को अभिषाप में बदल लिया था।
इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं।
इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं।
हम इस महान स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण की सरल विधि को समझेंगे, तत्पश्चात् इसके भावों को समझते हुए अपने आत्म उन्नति के पथ पर आगे बढ़ेंगे। आपके मूल्यवान सुझाव सादर अपेक्षित हैं। - राजेश सुराना (पुणे)
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