भक्तामर स्तोत्र जैन परम्परा में सर्व मान्य महाप्रभाविक दिव्य स्तोत्र है। इस स्तोत्र में प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ प्रभु की स्तुति के माध्यम से स्तुतिकार भक्त आचार्य श्री मानतुंग विनय एवं समर्पण के सोपान चढ़ते हुए अपने आराध्यदेव के साथ घनिष्ट एकाग्रता की अनुभूति करने लगते हैं। परमात्मा की अनन्त शक्तियों का पारस स्पर्श पाकर जैसे स्वयं के भीतर अनन्त शक्ति का जागरण एवं प्रस्फुटन अनुभव करते हैं।
विनय और समर्पण के उत्तम भावों के फलस्वरूप शरीर में दिव्य ऊर्जा का उजागरण होता है और स्तोत्रकार जब अपने मोहजन्य बंधनों से मुक्त होता है तो उसकी समत्व शक्ति से सारे बन्धन स्वयं खुलते चले जाते हैं।
यह स्तोत्र मंत्रगर्भित स्तोत्र है। इसका प्रत्येक चरण, पद और अक्षर चमत्कारी है। इसमें मंत्रों के अक्षरों की ऐसी संयोजना की गयी है कि इनके शुद्ध उच्चारित स्तोत्र-जाप के महाप्रभाव से सारा काम अपने आप हो जाता है।
जब भक्त पूर्ण समर्पण भाव से अपने आराध्य से जुड़ जाता है तो शुद्ध आत्म भावों में विचरण करने लगता है। इसके प्रभाव से पुण्य कर्म तो साथ में ही उत्पन्न हो जाते हैं जिन्हें हम चमत्कार के रूप में अनुभव करने लगते हैं।
आचार्यश्री मानतुंगजी के उत्तरवर्ती आचार्यों ने भक्तामर के कई कल्प तैयार किये हैं। भक्तामर के हर श्लोक की विधि, हर श्लोक का मंत्र-तंत्र, इन सबकी रचना की तथा उनके लाभों का वर्णन किया है।
वास्तव में भक्तामर स्तोत्र परमार्थ का समुच्चय है। परमार्थ मिलने पर भक्त को यह स्तोत्र ऋद्धि, सिद्धि और आत्मिक सुख को सुलभ कराता है। इसका प्रत्येक श्लोक ही अपने आप में इतना भव्य एवं दिव्य है कि उसका श्रद्धा और समर्पण से विनयपूर्वक किया गया शुद्ध उच्चारण सहित जाप ही हमारे आत्मिक उत्थान का कारक बन जाता है।
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