Saturday, 23 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 17-18 के भाव एवं लाभ



 श्लोक 17 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः प्रभु ! आप न कभी अस्त होते हैं, न राहु के द्वारा ग्रस्त होते हैं। संपूर्ण जगत को आप एक साथ प्रकाशित करते हैं। सघन बादल भी आपके इस महाप्रभाव को निरुद्ध नहीं कर सकते । हे मुनीन्द्र ! आपकी यह महिमा सूर्य से भी बढ़कर है।

आचार्यश्री ने सूर्य का विश्लेषण किया-सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है किन्तु अस्त भी होता है। सूर्य राहु के द्वारा ग्रस्त भी होता है और पूर्ण सूर्य ग्रहण में अन्धकार-सा छा जाता है। सूर्य एक बार में सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है। कहीं रात होती है तो कहीं दिन, इस प्रकार सूर्य का सर्वत्र एक समान प्रकाश नहीं होता है। बादलों के छा जाने पर सूर्य का तेज छिप जाता है। अतः भगवान ऋषभदेव की तुलना सूर्य से कैसे की जा सकती है? भगवान ऋषभदेव तो सूर्य से बहुत बढ़कर महिमा वाले हैं। 

अब इन तथ्यों पर यदि विचार करें कि प्रभु अस्त नहीं होते-केवलज्ञानी के सभी आवरण क्षीण हो जाते हैं। वह ज्ञान कभी अस्त नहीं हो सकता। दूसरा-प्रभु राहु से ग्रस्त नहीं होते। राहु छाया ग्रह है, छाया का वर्ण कृष्ण वर्ण माना गया है। पाप का भी वर्ण कृष्ण वर्ण है। प्रभु ने मोहनीय कर्म को पूर्णतः क्षीण कर दिया इसलिए आपको कोई दुष्कृत प्रभावित नहीं कर सकता। और पाप बन्ध नहीं हो सकता इसलिए आप राहु से कभी ग्रस्त नहीं होते। तीसरा- आपके ज्ञानावर्णीय और मोहनीय कर्म क्षीण हो चुके हैं अतः आपका ज्ञान सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। तीनों लोकों को एक साथ प्रकाशित कर रहा है। चौथा-प्रभु का ज्ञान मेघ द्वारा आच्छन्न नहीं है। अर्थात् प्रभु की शक्ति का विकास अनन्त है। इस शक्ति को कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता। 

जिसके ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय और अंतराय कर्मों को क्षीण कर दिया हो वह सूर्य से भी बढ़कर तेजस्वी होता है। आचार्यश्री कहते हैं - इसलिए प्रभु! मैं आपकी तुलना सूर्य से कैसे कर सकता हूँ। सूर्य आपके सामने बहुत छोटा है।

आचार्यश्री ने भाव कुछ इस प्रकार कहे हैं-जितनी धैर्यशीलता, आत्म-नियंत्रण की शक्ति बढ़ेगी उतने ही हम राग-द्वेष, कषायों से अप्रभावित रहेंगे, अविचलित रहेंगे।

श्लोक 18 के भाव-
इसी क्रम में अगले श्लोक में आचार्यश्री ने चन्द्रमा से तुलना करते हुए कहा है- प्रभु ! चन्द्रमा तो उदय भी होता है और अस्त भी। परन्तु आपका ओजमय मुखमण्डल रूपी चन्द्र सदा ही दैदिप्यमान रहता है। 

हजारों चन्द्र-सूर्यों से भी अधिक कान्तिमय आपकी आभा तीनों लोकों को प्रकाशित करती है। चन्द्रमा रात्रि का अन्धकार दूर करता है परन्तु आपका तेज मोह के महा अन्धकार को दूर करता है। 

चन्द्रमा बादलों की ओट में छिप जाता है किन्तु आपका प्रकाश तो सदा ही प्रकाशमान रहता है। आपकी निर्मल ज्योति को राग के बादल कभी नहीं ढक सकते। चन्द्रमा घटता बढ़ता है परन्तु आपका मुखचन्द्र सदा अनन्त कान्तिधारक है। 

इन दो श्लोकों के (17 एवं 18) श्रद्धापूर्वक जप-साधना से तृष्णा, दुःख, अशांति, घृणा, कुण्ठा - इन सभी विकारों से मुक्ति प्राप्त होती है और अन्तर ज्ञान ज्योति प्रकट हो, पवित्र जीवन स्रोत प्रारम्भ करती है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Sunday, 17 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 15-16 के भाव एवं लाभ (आध्यात्मिक उन्नति का महामंत्र)

 श्लोक 15 एवं 16 आध्यात्मिक उन्नति के महामंत्र कहे जाते हैं।

श्लोक 15 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः हे वीतराग! आपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति कर ली है, राग पर विजय प्राप्त कर ली है। जो प्रभावित होने की अवस्था है उसे समाप्त कर दिया। इस स्थिति में कोई निमित्त आपको विचलित नहीं कर पाए, फिर वे देवांगनाएं ही क्यों न हो। 

हवा तेज चले या धीमी वह प्राणी जगत् को प्रभावित करती है। तेज तूफानी हवाएं वृक्षों को उखाड़ सकती हैं तथा धरती पर अस्त-व्यस्तता फैला देती हैं। प्रलयंकारी तूफानों से छोटे पर्वत भी कंपायमान हो जाते हैं। परन्तु क्या प्रलयंकारी तूफानी हवाएं मंदराचल पर्वत को भी विचलित कर सकती हैं? नहीं, वह किसी प्रकार से विचलित नहीं होता। प्रभु, आपका धैर्य भी मंदराचल पर्वत की भाँति अप्रकंप है, अविचल है। आपका आत्मबल और कषाय-विजय इतने दृढ़ हैं कि राग का कोई भी हेतु आपको विचलित नहीं कर सकता तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

आचार्यश्री ने भाव कुछ इस प्रकार कहे हैं-जितनी धैर्यशीलता, आत्म-नियंत्रण की शक्ति बढ़ेगी उतने ही हम राग-द्वेष, कषायों से अप्रभावित रहेंगे, अविचलित रहेंगे।

अब आचार्यश्री प्रभु के सौन्दर्य से आगे बढ़ कर, गुणों की व्याख्या कर, स्तुतिपाठ को आगे बढ़ाते हैंः
जहाँ राग पर विजय होती है वहाँ ज्योति प्रकट होती है। राग-द्वेष और कषाय ये तमोगुण पैदा करने वाले तत्व हैं। वीतरागता अात्मा को प्रकाशित करने वाला तत्व है।
इसी आधार पर, श्लोक 16 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः हे प्रभु! आप ज्योतिर्मय हैं। प्रकाशमय दीप हैं जिसे न बाती की आवश्यकता है न तेल की और न ही जिसकी ज्योति किसी प्रकार का धूँआ प्रकट करती है। और जिसका प्रकाश तीनों जगत् को प्रकाशित करता है।

आचार्यश्री कह रहे हैं- प्रभु ! मैं एक दीपक से आपकी तुलना कैसे कर सकता हूँ क्योंकि दीपक सीमित क्षेत्र में ही प्रकाश करता है, हवाओं के प्रकंप से उसकी ज्योति काँप जाती है, बुझ जाती है, उससे धूँआ निकलता है, परन्तु आपकी ज्योति तो अप्रकंप है, सदा ही ज्योतिर्मय रहती है तथा निर्धूम है। आपका ज्ञान-प्रकाश अपूर्व है। आपके ज्ञान-प्रकाश से कहीं भी अंधकार नहीं रहता। आपका केवल ज्ञान तीनों लोकों को प्रकाशित करता है। 

इस प्रकार इन दो श्लोकों में (15 एवं 16) आचार्यश्री मानतुंगजी ने आंतरिक शक्ति का उद्भावन किया है। धैर्य विकास की वृद्धि करते हुए अविचलन एवं प्रकाश का संदेश दिया है। इन दोनों श्लोकों की श्रद्धापूर्वक ध्यान साधना अविचलन, इंट्यूशन पावर (अंतर्दृष्टि) के जागरण का कारक बनती है।

इस दिशा में ये दोनों श्लोक महामंत्र का कार्य करते हैं। ये दोनों श्लोक आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग हैं।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
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Thursday, 14 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 13 -14 के भाव एवं लाभ



श्लोक 13 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः संसार में मुख की सुन्दरता की उपमा चन्द्रमा से दी जाती है। परन्तु हे प्रभु! आपके मुख की उपमा किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती, क्योंकि आपका मुख दिन और रात में समान रूप मे निर्मल रूप में प्रकाशित रहता है। जबकि चन्द्रमा दिन के उजाले में पलाश के सूखे पत्ते के समान फीका, कान्तिहीन दिखाई देता है।

आपके मुख की दिव्यता देव, मनुष्य और नागेन्द्रों के नेत्रों को आकर्षित करने वाला और तीनों लोकों की समस्त श्रेष्ठ उपमाओं को जीतने वाला है। जो इसे एक बार देख लेता है वह बस देखता ही रह जाता है।
 
आचार्य कहते हैं कि चंद्रमा में कलंक लगा है, उसमें लांछन है, वह निर्लांछन नहीं है। उसकी शीतलता, प्रकाश सीमित समय के लिए ही है। परन्तु हे प्रभु! आपका मुख लो निर्लांछन है, सदा ही प्रकाशमान रहता है, उसकी शीतलता, सौम्यता, दिव्यता और तेज के समान कोई दूसरा तीनों जगत में नहीं है। इस जगत में मुख के लिए जितनी भी उपमाएं संभव हैं आपने उन सब को जीत लिया है।
 
इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में शान्ति एवं सौम्यता स्थापित होती है। एकाग्रचित्तता बढ़ती है।

अब आचार्यश्री प्रभु के सौन्दर्य से आगे बढ़ कर, गुणों की व्याख्या कर, स्तुतिपाठ को आगे बढ़ाते हैंः

श्लोक 14 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः
प्रभु ! मैं जहाँ भी देखता हूँ आपके गुण दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आपके गुण सारे संसार में, तीनों लोकों में फैल गये हैं ।

आचार्यश्री कहते हैं- हे प्रभु ! पूर्णिमा के संपूर्ण चन्द्र की कलाओं के समूह के समान शुभ्र हैं, तीनों लोकों में फैले हुए हैं। क्योंकि इन गुणों ने तीनों जगत् के स्वामी का आश्रय लिया हुआ है इसलिए इन्हें तीनों लोकों में फैलने से कोई नहीं रोक सकता।

तीनों लोकों का स्वामी कौन हो सकता है? इस विषय में कहा गया है-कि तुम अकिंचन बन जाओ। पूर्ण अपरिग्रही बन जाओ। जो पूर्ण अपरिग्रही है उसमें गुणों का विकास होता है। ये गुण फैलने वाले हैं। अतः संपूर्ण लोक में फैलते हैं। मेरा कुछ नहीं है इस सच्चाई को आत्मसात् करने वाले की सभी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। जहाँ मेरा घर या यह मेरा है के भाव हैं वहाँ सीमितता आ गई। सीमा में बंध गये। सब त्यागते ही असीमित हो गये, सब कुछ तुम्हारा हो गया।

शुद्ध भावना के साथ इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में त्याग और अपरिग्रह के सुन्दर गुणों का विकास होता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
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Wednesday, 6 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 10-12 के भाव एवं लाभ



आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक “भक्तामर : एक अंतस्तल का स्पर्श में बहुत ही सुन्दर रूप में समझाया है कि “जैन दर्शन के अनुसार संसार अवस्था में भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है और मुक्त अवस्था में भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है।” 

श्लोक 10 के भावः
इसी दर्शन के आधार पर आचार्यश्री मानतुंगजी कहते हैंः हे भुवनभूषण भूतनाथ! आपमें विद्यमान वास्तवित विपुल गुणों का कीर्तन करने वाले भक्त यदि आप जैसे ही प्रभु बन जाते हैं तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। जो धनीमानी श्रीमन्त अपने आश्रित सेवकों को वैभव देकर अपने समान ही समृद्धशाली नहीं बनाता उस स्वामी की सेवा से सेवक को क्या लाभ है? 

पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण से आपकी स्तुति करने वाला आपके समान ही बन जाता है। जैन धर्म समानता को महत्व देता है। जहाँ समानता हो वहाँ सभी विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। भक्त जब प्रभु के सत्य, क्षमा, शील, संयम, संतोष जैसे सुन्दर गुणों की भावना करता हुआ तन्मयता पूर्वक स्तुति में लीन हो जाता है तो प्रभु के समान ही बनने लगता है। अंतर में दिव्य गुणों का सृजन होने लगता है। धीरे-धीरे भक्त प्रभु के स्वरूप को प्राप्त होता जाता है।

इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से आत्म विश्वास में वृद्धि तथा अंतर में सात्विक गुणों की जागृति प्रारम्भ हो जाती है।

श्लोक 11 में  आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः
प्रभु ! आपका अलौकिक स्वरूप अपलक देखने योग्य है। आप जैसे दिव्य स्वरूप के दर्शन कर लेने के पश्चात् न तो पलक झपकने का मन होता है और न ही आँखें अन्य किसी को देखकर सन्तुष्ट होती हैं क्योंकि यह स्वाभाविक ही है कि चन्द्रकिरणों के समान निर्मल और शीतल क्षीर सागर का मधुर जल पीने के बाद, लवण समुद्र का खारा जल पीने की इच्छा कौन करेगा?  अर्थात कोई नहीं। 

आचार्यश्री कहते हैं हे प्रभु ! जब तक आपको नहीं देखा था, तब तक अपने चारों ओर किसी प्रिय वस्तु को देखने की चाह में ये आँखें इधर-उधर दौड़ती रहती थीं। परन्तु आपको देखने के पश्चात् ये आप पर ही ठहर गयीं हैं। अब और कुछ देखने की इच्छा ही शेष नहीं रही। इनके लिए अब कोई अन्य आकर्षण ही नहीं रहा।

रूप रंग से भी अधिक, सबसे बड़ा आकर्षण होता है शान्ति का, आभामण्डल की पवित्रता का और वीतरागता का। शान्ति का स्रोत है कषायों का उपशमन। प्रभु की आत्मा का स्वरूप इतना सुन्दर है कि वह सौन्दर्य प्रभु के चारों ओर प्रकट हो रहा है।

इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में असीम शान्ति का अनुभव तथा मानसिक तनाव से पूर्ण मुक्ति होती है। 

श्लोक 12  के भावों को आचार्यश्री ने कुछ इस प्रकार प्रकट किया हैः

हे त्रिलोकीनाथ ! जिन शान्त सुन्दर मनोहर परमाणुओं से आपका शरीर निर्मित हुआ है, वे शुभ परमाणु संसार में उतने ही थे, क्योंकि समूचे संसार में आपके समान अन्य कोई दूसरा अलौकिक रूप मुझे दिखाई नहीं देता।
तीर्थंकर वह होता है जो पूर्ण रूप से शान्त होता है। तीर्थंकरों को क्रोध कभी आता ही नहीं है। महावीर, पार्श्वनाथ इनको अनेकों उपसर्ग आए परन्तु ये कभी विचलित नहीं हुए। शान्तरस के परमाणुओं से निर्मित आभामण्डल इतना पवित्र होता है कि उसे अपलक देखते रहने का ही मन होता है।

आचार्यश्री ने त्रिभुवनैकललामभूतः का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है आप तीनों लोकों में ललामभूत हैं। ललाम का एक अर्थ होता है तिलक। अर्थात आप तीनों लोकों में तिलक के समान सुशोभायमान हैं। जिनका शरीर शान्ति, पवित्रता, निर्मलता, वीतरागता और विशुद्ध लेश्या से प्रभावित होता है तथा जिनका आभामण्डल पवित्रतम हो, वह वास्तव में सबसे सुन्दर हो जाता है।

इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना-स्तुति कषाय शान्ति का कारक बनती है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
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