आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक “भक्तामर : एक अंतस्तल का स्पर्श” में बहुत ही सुन्दर रूप में समझाया है कि “जैन दर्शन के अनुसार संसार अवस्था में भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है और मुक्त अवस्था में भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है।”
श्लोक 10 के भावः
इसी दर्शन के आधार पर आचार्यश्री मानतुंगजी कहते हैंः हे भुवनभूषण भूतनाथ! आपमें विद्यमान वास्तवित विपुल गुणों का कीर्तन करने वाले भक्त यदि आप जैसे ही प्रभु बन जाते हैं तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। जो धनीमानी श्रीमन्त अपने आश्रित सेवकों को वैभव देकर अपने समान ही समृद्धशाली नहीं बनाता उस स्वामी की सेवा से सेवक को क्या लाभ है?
पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण से आपकी स्तुति करने वाला आपके समान ही बन जाता है। जैन धर्म समानता को महत्व देता है। जहाँ समानता हो वहाँ सभी विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। भक्त जब प्रभु के सत्य, क्षमा, शील, संयम, संतोष जैसे सुन्दर गुणों की भावना करता हुआ तन्मयता पूर्वक स्तुति में लीन हो जाता है तो प्रभु के समान ही बनने लगता है। अंतर में दिव्य गुणों का सृजन होने लगता है। धीरे-धीरे भक्त प्रभु के स्वरूप को प्राप्त होता जाता है।
इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से आत्म विश्वास में वृद्धि तथा अंतर में सात्विक गुणों की जागृति प्रारम्भ हो जाती है।
श्लोक 11 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः प्रभु ! आपका अलौकिक स्वरूप अपलक देखने योग्य है। आप जैसे दिव्य स्वरूप के दर्शन कर लेने के पश्चात् न तो पलक झपकने का मन होता है और न ही आँखें अन्य किसी को देखकर सन्तुष्ट होती हैं क्योंकि यह स्वाभाविक ही है कि चन्द्रकिरणों के समान निर्मल और शीतल क्षीर सागर का मधुर जल पीने के बाद, लवण समुद्र का खारा जल पीने की इच्छा कौन करेगा? अर्थात कोई नहीं।
आचार्यश्री कहते हैं हे प्रभु ! जब तक आपको नहीं देखा था, तब तक अपने चारों ओर किसी प्रिय वस्तु को देखने की चाह में ये आँखें इधर-उधर दौड़ती रहती थीं। परन्तु आपको देखने के पश्चात् ये आप पर ही ठहर गयीं हैं। अब और कुछ देखने की इच्छा ही शेष नहीं रही। इनके लिए अब कोई अन्य आकर्षण ही नहीं रहा।
रूप रंग से भी अधिक, सबसे बड़ा आकर्षण होता है शान्ति का, आभामण्डल की पवित्रता का और वीतरागता का। शान्ति का स्रोत है कषायों का उपशमन। प्रभु की आत्मा का स्वरूप इतना सुन्दर है कि वह सौन्दर्य प्रभु के चारों ओर प्रकट हो रहा है।
इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में असीम शान्ति का अनुभव तथा मानसिक तनाव से पूर्ण मुक्ति होती है।
श्लोक 12 के भावों को आचार्यश्री ने कुछ इस प्रकार प्रकट किया हैः
हे त्रिलोकीनाथ ! जिन शान्त सुन्दर मनोहर परमाणुओं से आपका शरीर निर्मित हुआ है, वे शुभ परमाणु संसार में उतने ही थे, क्योंकि समूचे संसार में आपके समान अन्य कोई दूसरा अलौकिक रूप मुझे दिखाई नहीं देता।
तीर्थंकर वह होता है जो पूर्ण रूप से शान्त होता है। तीर्थंकरों को क्रोध कभी आता ही नहीं है। महावीर, पार्श्वनाथ इनको अनेकों उपसर्ग आए परन्तु ये कभी विचलित नहीं हुए। शान्तरस के परमाणुओं से निर्मित आभामण्डल इतना पवित्र होता है कि उसे अपलक देखते रहने का ही मन होता है।
आचार्यश्री ने त्रिभुवनैकललामभूतः का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है आप तीनों लोकों में ललामभूत हैं। ललाम का एक अर्थ होता है तिलक। अर्थात आप तीनों लोकों में तिलक के समान सुशोभायमान हैं। जिनका शरीर शान्ति, पवित्रता, निर्मलता, वीतरागता और विशुद्ध लेश्या से प्रभावित होता है तथा जिनका आभामण्डल पवित्रतम हो, वह वास्तव में सबसे सुन्दर हो जाता है।
इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना-स्तुति कषाय शान्ति का कारक बनती है।
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com
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