कहा जाता है - ध्यान की साधना करने वाला ढाई मिनिट में जितने कर्मों को क्षीण करता है, तपस्या करने वाला लम्बे समय में भी उन कर्मों को क्षीण नहीं कर पाता। जिसके जीवन में ध्यान की साधना है, वहाँ समता का उदय होता है। इसी गहन बात को आचार्यश्री मानतुंगजी ने बहुत ही सुन्दर तरीके से सातवें , आठवें तथा नवें श्लोक में समझाया है।
श्लोक सात के भावों को समझते हैं। आचार्यश्री कह रहे हैं- हे प्रभु ! आपकी स्तुति से प्राणियों के अनेक जन्म-परंपरा से बंधे हुए पापकर्म क्षण भर में क्षय हो जाते हैं। जैसे संसार में व्याप्त भौरों के समान गहन काला अंधकार सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है।
इतना सघन और इतना गहरा अन्धकार एक सूर्य के आगमन से नष्ट हो सकता है तो फिर भगवान ऋषभदेव की साधना, आराधना और स्तुति करने वाले व्यक्ति के भीतर प्रकाश क्यों नहीं जागृत होगा? उसके भीतर जो भी अंधकार रूपी पाप संचित है, वह क्षण में नष्ट क्यों नहीं हो सकता? अर्थात् जो प्रभु ऋषभदेव की आराधना पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से करता है वह जन्म-परंपरा से संचित पापकर्मों से मुक्त होने लगता है। वह पापों से मुक्त हो जाता है। सूर्य का प्रकाश इतना तेज होता है कि उसके उदय होने पर अन्य सभी ग्रह-नक्षत्रों का तेज उसमें विलीन हो जाता है। इसी प्रकार प्रभु की साधना में लीन व्यक्ति के जीवन में, प्रभु के तेज के दिव्य प्रभाव से, सभी व्यवधान समाप्त हो जाते हैं।
श्लोक सात के भक्ति पूर्वक साधना से जन्म-परंपरा से बंधे हुए पाप क्षीण होना प्रारम्भ हो जाते हैं। और हम अात्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने लगते हैं। आत्मा में शुभ भावों की जागृति के साथ ही आत्मोद्धार, कल्याण मार्ग प्रशस्त होने लगता है। जीवन के कष्ट, व्यवधान सभी दूर होने लगते हैं। क्योंकि सभी व्यवधानों, कष्टों का मूल कारण जन्म-परंपरा से आत्मा के साथ बंधे हुए पापकर्म ही तो होते हैं।
श्लोक आठ में आचार्यश्री कह रहे हैं- हे प्रभु! मैं अल्प बुद्धि होते हुए भी, मेरे द्वारा रचित यह स्तोत्र आपके प्रभाव से, सज्जनों के चित्त का हरण करने वाला होगा, ऐसा मानकर मेरे द्वारा आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जा रहा है। जैसे कमलिनी के पत्तों पर पड़ी हुई पानी की बूंद भी उन पत्तों के प्रभाव से मोती के समान शोभा पाती है।
आचार्यश्री कहते हैं मेरे द्वारा की जा रही स्तुति रचना सामान्य है फिर भी वह विद्वानों का चित्त हरण कर लेगी क्योंकि मेरा आराध्य पूर्ण सामर्थ्यवान है, अनन्त शक्ति का धारक है। और जिसका हम संसर्ग करते हैं उसका प्रभाव होना तो निश्चित ही है।
जैसे पानी की साधारण बूंद यदि गर्म लोहे के संपर्क में आती है तो पता ही नहीं चलता किधर गई, और उसी पानी की बूंद कमलिनी के पत्ते पर गिरकर मोती के आकार में दिखाई देती है। यह उस कमलिनी के पत्ते का प्रभाव ही तो है।
श्लोक आठ के भक्ति पूर्वक साधना से अरिष्ट योग समाप्त हो जाते हैं। आपत्ति, विपत्ति के योगों से मुक्ति मिलती है।
स्तवन वह होता है जिसके प्रभाव से समस्त दोष दूर हो जाते हैं। स्तवन से अज्ञान का नाश होता है। मिथ्या दृष्टिकोण दोष दूर होता है। अनाचार समाप्त होता है और चारित्र का लाभ मिलता है और दुर्लभ बोधि सुलभ हो जाती है।
हमारे मन में प्रश्न उठता होगा कि समस्त दोषों का नाश कैसे होता है? इसका उत्तर है- जिस गुण की चर्चा करें, बार बार ध्यान करें वही गुण हमारे अंतर में प्रविष्ट हो जाता है और अंतर से अवगुण समाप्त होने लगते हैं। यह योग का गुण-संक्रमण का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
आचार्यश्री, श्लोक नौ के माध्यम से कह रहे हैं- प्रभु! आपकी स्तुति तो बहुत बड़ी बात है, आपके केवल नाम उच्चारण से ही संसारी जीवों के समस्त पापों का विनाश हो जाता है। सूरज धरती से अनन्त ऊँचाई पर होते हुए भी उसकी एक नन्हीं-सी किरण भी सरोवर में स्थित कमल को विकसित कर देती है।
अर्थात् आपकी चर्चा सूर्य की प्रभा जैसी है और आपका स्तवन तो प्रत्यक्ष रविमंडल ही है। आचार्यश्री प्रभु के स्तवन को सूर्य के समान मानते हुए कहते हैं कि उनकी एक किरण भी प्राप्त हो जाए तो मेरा हृदय-कमल विकसित हो जाएगा।
सूर्य की एक छोटी-सी किरण का प्रभाव है कि वह धरती पर हजारों-लाखों कमलों को विकसित कर देती है। इसी प्रकार प्रभु की पूर्ण भक्ति भाव से की गयी चर्चा मनुष्य के पापों को क्षय करने का अनन्त सामर्थ्य रखती है।
श्लोक नौ की भक्ति पूर्वक साधना, पापों का क्षय करती है तथा मनोकामनाओं की पूर्ति का कारक सिद्ध होती है। मन में पवित्र भावों की जागृति प्रारम्भ होती है।
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं या यदि आप अपने क्षेत्र में इसकी कार्यशाला आयोजित कराना चाहते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com
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