Tuesday, 8 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 4 के भाव एवं प्रभाव




आचार्यश्री मानतुंगजी ने स्वयं को प्रभु के चरणों में बालक के रूप में प्रस्तुत कर दिया। बालक में समर्पण होता है। निश्छलता होती है। उन्हीं भावों से पूर्ण श्रद्धा से वे प्रभु की स्तुति में तल्लीन हो गये।

आचार्यश्री आगे कहते हैं- प्रभु!
मैं आपके अनन्त गुणों की स्तुति नहीं कर सकता। जब देवताओं के गुरु बृहस्पति के समान बुद्धि वाले भी आपके गुणों की स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं तो और कौन ऐसा करने में समर्थ है? 

क्या कोई व्यक्ति अपनी भुजाओं से प्रलयंकारी समुद्र, जिसमें मगरमच्छों का समूह उछालें भर रहा हो, तैर कर पार करने में समर्थ हो सकता है? कदापि नहीं।

वैसे ही आपके अनन्त गुणों की स्तुति कौन करने में समर्थ है? जब बृहस्पति के समान बढ़े से बढ़ा व्यक्ति भी आपके अनन्त गुणों की स्तुति करने में सक्षम नहीं तो मेरी अक्षमता क्या महत्व रखती है?

इन्हीं विचारों के साथ आचार्यश्री ने भक्ति पूर्वक प्रभु की स्तुति आरम्भ की। एक नये आत्मविश्वास के साथ कि मैं प्रभु के अनन्त गुणों की स्तुति का सामर्थ्य नहीं रखता परन्तु भक्ति में मैं कैसे भी कम नहीं हूँ।

आचार्यश्री नें इस श्लोक के माध्यम से अपने आत्म सामर्थ्य को पहचानने का, उसपर विश्वास का संदेश दिया है। जब हम पूर्ण विश्वास के साथ भक्ति पूर्वक परमात्मा को समर्पित होते हैं तो अपनी आत्मा के साथ परमात्मा का, प्रभु का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जिसके महाप्रभाव से हमारे अंतर में प्रभु के प्रति भक्ति की धारा प्रवाहित होने लगती है जो विश्वास की नयी ज्योति जागृत करती है। 

इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से आत्म विश्वास जागृत होता है।स्वयं की आत्मशक्ति पर विश्वास अर्थात् कार्यों में पूर्ण विश्वास के साथ सफलता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।


यदि आप प्रथम चार श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। - राजेश सुराना (पुणे) E-mail : religiousraaga@gmail.com

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