Sunday, 6 January 2019

भक्तामर स्तोत्र ः श्लोक 3 भाव एवं फलश्रुति



आशा है प्रथम दो श्लोक के भाव आपने पढ़े और समझे होंगे। आज तीसरे श्लोक के विषय में जानेंगे।

आचार्यश्री ने समर्पण भाव से प्रभु के चरणों में वन्दन करते हुए उन दिव्य चरणों का आलम्बन लिया। संकल्प किया कि मैं प्रभु ऋषभदेव की स्तुति करूँगा। संकल्प के साथ ही आचार्यश्री ने मनन किया कि बुद्धि में मैं इन्द्र अथवा अन्य ज्ञानियों जैसा बुद्धिमान तो नहीं हूँ। फिर भी मैं प्रभु की स्तुति करूँगा अतः उन्होंने स्वयं को प्रभु के चरणों में स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर दिया।

आचार्य कहते हैं प्रभु! बुद्धि की कमी मेरे लिए खेद का विषय नहीं है क्योंकि मैं आपके समक्ष स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।मैंने अपनी बुद्धि को तोला नहीं और आपकी भक्ति का संकल्प कर लिया। मैं आपके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हूँ। मेरा यह स्तुति करने का क्रम उस बालक जैसा ही है जो जल में चन्द्रमा के बिम्ब को पकड़ने की चेष्ठा करता है। उसकी इस बाल चेष्ठा पर कोई नहीं हंसता बल्कि उसका कौतुक करते हैं। मेरे द्वारा आपके अनन्त गुणों का गुणगान बालचेष्ठा समान ही तो है। बालक सरल भाव से जैसे यह कार्य करता है उसी प्रकार मैं भी पूर्ण समर्पण से सरलता पूर्वक आपकी स्तुति कर रहा हूँ।

इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से मैत्री भाव जागृत होता है।
प्रथम तीनश्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं।  -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

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