श्लोक पांच के भावों को समझते हैं।
आचार्यश्री मानतुंगजी प्रभु आदिनाथ की भक्ति में पूर्णतः तल्लीन हो गये । वे बोले- हे मुनीश ! शक्तिहीन होते हुए भी मैं केवल आपकी भक्ति से प्रेरित होकर आपका यह स्तवन करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। जैसे प्रीति के कारण हिरणी भी अपनी शक्ति का विचार किये बिना ही अपने शिशु की रक्षा करने के लिए क्या सिंह के सामने नहीं कूद पड़ती है?
उन्होंने विचार किया कि मुझे डरने की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि मैं तो उस प्रभु की भक्ति कर रहा हूँ जो त्रिलोक स्वामी हैं। मैं अपनी बुद्धि की अल्पता का क्यों भान करूँ? मेरी तो भक्ति ही मेरा सहारा बनेगी। उसी के सहारे मैं स्तुति करूंगा।
इस श्लोक में आचार्यश्री के भक्तिपूर्ण समर्पण का अनुभव किया जा सकता है। जब भक्त पूर्ण श्रद्धा से अपने आराध्य की भक्ति में लग जाता है तो उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। अपने शक्तिहीन होने की भावना के ऊपर वह विजय प्राप्त कर लेता है।
यही भक्ति भावना हमारे आत्मिक साहस वृद्धि का कारक बनती है। इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से अंतर में हर परिस्थिति से सामना करने का साहस जागृत होता है। स्वयं की आत्मशक्ति पर विश्वास तथा अदम्य साहस के साथ सफलता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
श्लोक 6
आचार्यश्री श्रद्धा और भक्ति के साथ आगे कह रहे हैं- हे प्रभु ! भले ही ज्ञानी, विद्वान पंडित मेरे इस प्रयास की हँसी उड़ाएं, मेरा उपहास करें परन्तु मैं तो आपकी स्तुति करूंगा। यह आपकी भक्ति का ही प्रताप है जो मुझे आपकी स्तुति करने को वाचाल कर रही है। विवश कर रही है। जैसे वसंत ऋतु में कुहूकती, कोयल की मधुर एवं सुरीली कुहुक का कारण निश्चय रूप से आम की मंजरियों का समूह ही होता है।
आचार्यश्री श्रद्धा और भक्ति के साथ आगे कह रहे हैं- हे प्रभु ! भले ही ज्ञानी, विद्वान पंडित मेरे इस प्रयास की हँसी उड़ाएं, मेरा उपहास करें परन्तु मैं तो आपकी स्तुति करूंगा। यह आपकी भक्ति का ही प्रताप है जो मुझे आपकी स्तुति करने को वाचाल कर रही है। विवश कर रही है। जैसे वसंत ऋतु में कुहूकती, कोयल की मधुर एवं सुरीली कुहुक का कारण निश्चय रूप से आम की मंजरियों का समूह ही होता है।
आचार्य श्री में भक्ति का संवेग प्रबल हुआ। संवेग और बुद्धि के प्रारंभिक द्वन्द को पार कर आचार्यश्री प्रभु की स्तुति में तन्मय हो गये।
इस समर्पण भाव को जब हम अपने अंतर में अनुभव करते हैं, अपने आप को सरलता से समर्पित करते ही हमारे अंतर के अहं का समापन हो जाता है और सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन की जागृति प्रारम्भ होने लगती है।इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से अंतर में ज्ञान जागृति का प्रारम्भ हो जाता है।
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com
No comments:
Post a Comment