Thursday, 14 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 13 -14 के भाव एवं लाभ



श्लोक 13 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः संसार में मुख की सुन्दरता की उपमा चन्द्रमा से दी जाती है। परन्तु हे प्रभु! आपके मुख की उपमा किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती, क्योंकि आपका मुख दिन और रात में समान रूप मे निर्मल रूप में प्रकाशित रहता है। जबकि चन्द्रमा दिन के उजाले में पलाश के सूखे पत्ते के समान फीका, कान्तिहीन दिखाई देता है।

आपके मुख की दिव्यता देव, मनुष्य और नागेन्द्रों के नेत्रों को आकर्षित करने वाला और तीनों लोकों की समस्त श्रेष्ठ उपमाओं को जीतने वाला है। जो इसे एक बार देख लेता है वह बस देखता ही रह जाता है।
 
आचार्य कहते हैं कि चंद्रमा में कलंक लगा है, उसमें लांछन है, वह निर्लांछन नहीं है। उसकी शीतलता, प्रकाश सीमित समय के लिए ही है। परन्तु हे प्रभु! आपका मुख लो निर्लांछन है, सदा ही प्रकाशमान रहता है, उसकी शीतलता, सौम्यता, दिव्यता और तेज के समान कोई दूसरा तीनों जगत में नहीं है। इस जगत में मुख के लिए जितनी भी उपमाएं संभव हैं आपने उन सब को जीत लिया है।
 
इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में शान्ति एवं सौम्यता स्थापित होती है। एकाग्रचित्तता बढ़ती है।

अब आचार्यश्री प्रभु के सौन्दर्य से आगे बढ़ कर, गुणों की व्याख्या कर, स्तुतिपाठ को आगे बढ़ाते हैंः

श्लोक 14 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः
प्रभु ! मैं जहाँ भी देखता हूँ आपके गुण दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आपके गुण सारे संसार में, तीनों लोकों में फैल गये हैं ।

आचार्यश्री कहते हैं- हे प्रभु ! पूर्णिमा के संपूर्ण चन्द्र की कलाओं के समूह के समान शुभ्र हैं, तीनों लोकों में फैले हुए हैं। क्योंकि इन गुणों ने तीनों जगत् के स्वामी का आश्रय लिया हुआ है इसलिए इन्हें तीनों लोकों में फैलने से कोई नहीं रोक सकता।

तीनों लोकों का स्वामी कौन हो सकता है? इस विषय में कहा गया है-कि तुम अकिंचन बन जाओ। पूर्ण अपरिग्रही बन जाओ। जो पूर्ण अपरिग्रही है उसमें गुणों का विकास होता है। ये गुण फैलने वाले हैं। अतः संपूर्ण लोक में फैलते हैं। मेरा कुछ नहीं है इस सच्चाई को आत्मसात् करने वाले की सभी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। जहाँ मेरा घर या यह मेरा है के भाव हैं वहाँ सीमितता आ गई। सीमा में बंध गये। सब त्यागते ही असीमित हो गये, सब कुछ तुम्हारा हो गया।

शुद्ध भावना के साथ इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में त्याग और अपरिग्रह के सुन्दर गुणों का विकास होता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

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