आचार्य मानतुंगजी भगवान श्री आदिनाथ की स्तुति करते हुए भक्तिरस में सराबोर हो गये। वे भक्ति के उस शिखर पर पहुँच गये जहाँ भक्त को भगवान के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता। वे कहते हैंः हे नाथ ! रात में चन्द्रमा की क्या जरूरत है और दिन में सूर्य की क्या आवश्यकता है? क्यों ? क्योंकि जब आपका मुखारबिन्द तम का नाश कर रहा है तो फिर किसी अन्य प्रकाश की क्या आवश्यकता है ? चन्द्रमा क्या आपके मुखारबिन्द से अधिक शीतलता अथवा शान्ति देगा ? सूर्य और चन्द्र की आभा आपके मुख की आभा से अधिक कान्तिमान् नहीं हैं।
एक सामान्य व्यक्ति चाँद और सूरज को निरर्थक नहीं कह सकता । किन्तु एक भक्त अपने भगवान में ही प्रकाश देखता है और भगवान में ही शान्ति का अनुभव करता है तब उसके लिए न अन्यत्र प्रकाश और न ही शान्ति की जरूरत होती है।
आचार्यश्री कहते हैं - चावलों की खेती पक जाने के बाद जल के भार से झुके हुए बादलों की हमें कोई जरूरत नहीं है। अर्थात् जब मुझे प्रकाश मिल गया, शान्ति मिल गयी और सबसे प्रमुख, प्रकाश और शान्ति देने वाले मेरे प्रभु मुझे मिल गये तो अब मुझे और क्या चाहिये ?
श्लोक 20 के भावः
इसी धारा में आगे बढ़ते हुए आचार्यश्री अगले श्लोक में कह रहे हैं - प्रभु ! आपमें ज्ञान का जो प्रकाश है, वह मुझे अन्यत्र दिखाई नहीं देता। अर्थात् आपने आत्मा का जो दर्शन दिया वैसा किसी ने नहीं दिया। ज्ञान का प्रकाश जैसा आपमें दिखाई दे रहा है वैसा अन्यत्र हरि-हर आदि में भी नहीं दिखता। आचार्यश्री यहाँ किसी की उपेक्षा नहीं कर रहे हैं न वे मात्र ऐसा श्रद्धावश या द्वेषवश कह रहे हैं। उन्होंने सभी दर्शनों का अध्ययन किया था उस आधार पर कह रहे हैं जैसा ज्ञान आपमें, एक सर्वज्ञ में, केवल ज्ञानी आत्मा में प्रस्फुरित हो रहा है, वैसा अन्य दर्शन में नहीं दिखाई देता। जो तेज मणि में होता है वह किसी काँच में नहीं दिखाई देता। काँच सूर्य की किरणों के प्रकाश से चमकता तो है पर जो आभा और कान्ति मणि में होती है वह काँच में नहीं पाई जा सकती।
इन दोनों श्लोकों में आचार्यश्री ने ज्ञान और उसकी ज्योति की स्तवना की है।
इन दो श्लोकों के (19 एवं 20) श्रद्धापूर्वक जप-साधना से ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है।
श्लोक 12 से 20 तक के नौ श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान विकास की दृष्टि से ये बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं। इनकी श्रद्धा पूर्वक साधना से दुर्लभ ज्ञानराशि का स्रोत प्रकट हो सकता है।
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
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