जब भक्त अपने आराध्य से आत्मा से जुड़ जाता है तो भगवान भक्त के हृदय में समा जाते हैं। आचार्यश्री मानतुंग का हृदय भक्ति से परिपूर्ण था इसलिए उन्होंने ऋषभदेव के लिए इन दो श्लोकों में त्वाम् अर्थात् तुम से संबोधित किया।
आचार्यश्री कहते हैं - मुनिजन तुम्हें परम पुरुष कहते हैं (यहाँ मुनि का अर्थ ज्ञानी से है)। आपका बाह्य स्वरूप भी मनोहारी है और अंतरंग भी अत्यन्त अनुपम है। अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों ही उत्कृष्ट हैं, श्रेष्ठ हैं। इस उत्कृष्ठ काया और आत्मा के द्वारा आप वीतराग, केवली बने हैं। मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। इसलिए परम पुरुष हैं। आपकी दूसरी विशेषता है आदित्यवर्ण । सब रंग आपमें से ही निकलते हैं, इसीलिए आप अनुपम हैं, दोषरहित हैं, निर्मल हैं, तम से परे हैं। तुम्हारा सान्निध्य पाकर, मनुष्य वास्तव में मृत्यु को जीत लेता है। अमर हो जाता है, परमात्मा बन जाता है। इसीलिए तुम्हारे अतिरिक्त शिवपद - मोक्ष की प्राप्ति का दूसरा कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं है। तुम्हारी प्राप्ति, तुम्हारी सन्निधि एकमात्र मार्ग है।
इस श्लोक में आचार्यश्री ने भगवान् ऋषभदेव के आदित्यवर्ण अर्थात अरुण (उगते सूर्य सा लाल रंग) रंग के रूप में आंतरिक शक्ति की विशेषता को बताया है। उन्हें निर्मल तथा तम (पाप) से परे बताया है। मोक्ष मार्ग प्रदाता बताया है।
इस श्लोक की नियमित साधना से आंतरिक शक्ति का जागरण एवं पापवृत्ति से मुक्ति प्राप्त होती है।आत्म कल्याण की ओर बढ़ते हैं।
श्लोक 24 के भावः
आचार्य श्री मानतुंगजी अगले श्लोक में कह रहे हैं - हे प्रभो ! आप अव्ययी (अविनाशी) हैं। महान ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं। एक अक्षर के अनन्त-अनन्त पर्यवों का ज्ञान है आपको, इसलिए आप अव्ययी हैं। आप अशरीरी हैं, मुक्त हैं इसलिए आप अविनाशी हैं। आप विभु हैं, व्यापक हैं, समर्थ हैं। अचिन्त्य हैं, आपकी महिमा असीमित है। आप असंख्य हैं, आपके गुण, विशेषता अगिनत हैं, कोई भी इनका आख्यान करने में समर्थ नहीं है। आप आद्य हैं। प्रथम तीर्थंकर हैं, प्रथम राजा हैं। आप ब्रह्मा हैं। आपने सृष्टि अर्थात् समग्र समाज व्यवस्था का सृजन किया है। आप ईश्वर हैं। अनन्त हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, चारित्र, शक्ति सामर्थ्य से सम्पन्न हैं। अनंगकेतु हैं। अनंग कामदेव को कहा गया है और केतु का उदय होता है तब क्षय, संहार होता है। अतः आप काम का क्षय करने वाले हैं। आप योगीश्वर हैं। आपने सारे योगों को जाना था, योगियों में प्रथम योगी हैं। अनेक हैं, अनेक भी हैं और एक भी हैं क्योंकि आप मुक्त हो गये हैं। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त होने के बाद भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। इस अपेक्षा से एकत्र अवगाहन की दृष्टि से आप एक हैं और स्वतंत्रता की दृष्टि से, आत्मा की दृष्टि से आप अनेक हैं। आप ज्ञानस्वरूप हैं। अज्ञान का सर्वथा क्षय होने के कारण आप ज्ञानस्वरूप हैं। आप अमल हैं। आपके रज और मल क्षीण हो गये हैं इसलिए आप अमल हैं।
इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव के विराट व्यक्तित्व के अनेकों गुणों का चयन कर आचार्यश्री ने एक नयनाभिराम माला गूंथी। यह श्लोक प्रभु की विशेषताओं का मनोरम वर्णन कर रहा है। इसमें भक्ति, ज्ञान और चरित्र तीनों का समन्वय है।
इस श्लोक का श्रद्धा एवं भावपूर्वक किया गया जप-ध्यान अंतर में इन सुन्दर गुणों की जागृति प्रारम्भ करता है। साधक आत्मशुद्धि की ओर बढ़ता है।
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
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