Monday, 8 April 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 36 - 37 के भाव एवं लाभ (समृद्धिदायक एवं कषायमुक्ति प्रदाता)


श्लोक 36 के भावः
आचार्यश्री मानतुंगजी ने तीर्थंकर के एक अतिशय - तीर्थंकर जब चलते हैं तो देवता उनके पैरों के नीचे स्वर्ण कमल बना देते हैं, का वर्णन किया है।

आचार्यश्री कहते हैं - हे जिनेन्द्र! नूतन स्वर्ण कमलों के समूह के समान दिव्य कान्ति वाले तथा सब ओर फैलने वाली नख किरणों की ज्योति से अतीव सुन्दर लगने वाले आपके पवित्र चरण जहाँ - जहाँ  आपके चरण पड़ते हैं भक्त देवता गण वहाँ वहाँ स्वर्ण कमलों की रचना करते जाते हैं। ये स्वर्ण कमल कभी न मुर्झाने वाले हैं, सदा खिले ही रहते हैं।

ऐसा माना जात है कि कोटि-कोटि देवता सदा प्रभु की सेवा में रहते हैं। जब हम भक्ति के साथ प्रभु के दिव्य प्रकाशमान चरणों की कल्पना करते हैं और भावना करते हैं कि ये दिव्य चरण हमारे जीवन में आत्मिक समृद्धि का दिव्य प्रकाश लेकर आ रहे हैं। प्रभु के नख-शिख से निकलती स्वर्ण किरणें हमारे अंतर में पापकर्म के अन्धकार को मिटाते हुए ज्ञान के प्रकाश को फैला रही हैं। पूर्ण समर्पण एवं भक्ति पूर्वक प्रभु की इस भाव आराधना से प्रभु की सेवा में रह रहे देवता हमारी समृद्धि का कारक बनते हैं।

श्लोक 37 के भावः

आचार्यश्री समवसरण का सिंहावलोकन कर रहे हैं। वे कहते हैं-प्रभो ! जिस समवसरण में विराजकर आप धर्मोपदेश कर रहे हैं, उस समवसरण में मैंने आपकी जो विभूति देखी, वह अन्यत्र नहीं मिली। अशोक वृक्ष, सिंहासन, चामर, दिव्य छत्र, दिव्य ध्वनि - यह विभूति पर में नहीं दिखाई दी। “पर” का अर्थ है अवीतराग । आचार्यश्री कह रहे हैं- आपकी जो विभूति प्रकट हुई है वह वीतरागता के कारण हुई है. कर्मक्षय के कारण हुई है। आगे वे अपनी बात समझाते हुए कह रहे हैं- अंधकार का नाश करने वाले सूर्य की जैसी प्रभा होती है, वैसी प्रभा चमकते हुए तारों, नक्षत्रों आदि की कैसे हो सकती है?

समवसरण में तीर्थंकर प्रभु के पूर्ण ज्ञान की दशा प्रकट होती है, केवलज्ञान की ज्योति से सारा लोक प्रकाशमान हो जाता है। समवसरण में प्रभु की ध्वनि एक योजन तक सुनाई देती है तथा सत्यधर्म का रहस्य जो प्रभु बता रहे हैं वह सभी जीवों को उनकी भाषा में समझ में आता है। 

ऐसे दिव्य समवसरण की भावपूर्वक कल्पना करते हुए अपने आप को प्रभु के सामिप्य में अनुभव करते हुए भावना करें कि प्रभु आदिनाथ के दिव्य प्रभाव से हमारे अंतर के सभी कषाय (क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ आदि) समाप्त होते जा रहे हैं और प्रभु के दिव्य शान्तिप्रदाता तेज से हमारे अंतर-आत्मा में सुख, शान्ति, आनन्द की अमृत धारा प्रवाहित हो रही है।

इस श्लोक की नियमित साधना से अंतर में कषायों के समापन के साथ ही निर्मल भावों की जागृति प्रारम्भ होती है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Friday, 15 March 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 28 - 35 (गर्भस्थ जीव में गुण एवं संस्कार निर्माण में विशेष प्रभावी)



भक्तामर स्तोत्र के श्लोक 28 - 35 तीर्थंकर के आठ अतिशय, अष्ट प्रातिहार्यों के विषय में हैं।
 
भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् समवसरण में इन्द्रदेव आठ प्रातिहार्यों का रचना करते हैं। ये प्रातिहार्य विशेष महिमा का ज्ञान कराने वाले होते हैं। इन प्रातिहार्यों के साथ प्रभु की दिव्य छवि के मनोरम स्वरूप का ध्यान हमारे जीवन में बहुत कुछ विशेष घटित कर सकता है।

गर्भावस्था के दौरान इन अष्ट प्रातिहार्य वर्णित श्लोकों के शुद्ध उच्चारण के साथ नीचे बताए अनुसार भावना करने पर इनके दिव्य प्रभाव से आने वाला जीव ओजस्वी, सौम्य, मतिमान एवं श्रेष्ठ बुद्धि का धारक, असाधारण प्रतिभाशाली, श्रेष्ठ गुणों वाला, रूपवान, स्वस्थ एवं सभी को प्रिय होता है।


श्लोक 28 -
मानसिक शान्ति प्रदान करता है, उत्तेजना एवं आवेश शान्त करता है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ ऊँचे घने अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान भगवान आदिनाथ का ध्यान करें। भगवान के दिव्य स्वरूप से ऊपर निकलती हुई सुन्दर सुनहरी किरणें घने अशोक पर छा रही हैं ऐसा ध्यान करें।

भगवान के इस दिव्य सौम्य रूप का ध्यान करते हुए भाव करें कि होने वाला जीव भगवान के इन सौम्य शान्त गुणों को धारण कर रहा है।

श्लोक 29 -
आन्तरिक शक्तियों एवं अन्तर्दृष्टि का जागरण। स्फुर्ति, सक्रीयता एवं जागृति वृद्धि में सहायक।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः

इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान भगवान ऋषभदेव का ध्यान करें। उगते हुए सूर्य की लालिमायुक्त किरणें निकलती हुई कल्पना करें। भगवान के इस तेजस्वी रूप का ध्यान करते हुए भाव करें कि होने वाला जीव प्रभु के समान तेजस्वी, ऊर्जावान और ज्ञानवान हो। ये सभी गुण उसमें समाहित हो रहे हैं।

श्लोक 30 -
उत्तेजना एवं आवेश शान्त करता है। मन में आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ प्रभु के स्वर्णिम देह के दोनों ओर डुलते हुए श्वेत चामर की कल्पना करें। जैसे सुनहरे सुमेरु पर्वत के शिखर से दोनों ओर बहते हुए स्वच्छ निर्मल जल की श्वेत जलधारा गिर रही है। जो उगते हुए चाँद जैसी लग रही है। ऐसे ही श्वेत चवंरों के बीच ऋषभदेव भगवान का मनोहर स्वर्णिम स्वरूप का ध्यान करें।

भगवान के इस शान्त मनोरम स्वरूप का ध्यान करते हुए भाव करें कि होने वाला जीव प्रभु के समान शान्त, सौम्य, शोभायमान और मनोहर कान्ति युक्त हो। भगवान के ये सभी गुण वह जीव ग्रहण कर रहा है।

श्लोक 31 -
सुख एवं शान्ति का अनुभव होता है एवं मैत्री भाव जागृत होता है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ भाव करें कि प्रभु के मस्तक के ऊपर अत्यन्त सुन्दर चन्द्रमा के समान, सुन्दर श्वेत वर्ण वाले तीन छत्र हैं जिनमें मोतियों की सुन्दर झालरें लटक रही हैं। इन छत्रों ने सूर्य के की तीव्र गर्मी को प्रभु के ऊपर आने से रोक दिया है। इन छत्रों के नीचे विराजमान भगवान के स्वर्णिम स्वरूप की कल्पना करें। ऋषभदेव के ऊपर स्थित तीन छत्र बता रहे हैं कि प्रभु तीनों लोकों के स्वामी हैं। तीनों लोकों का स्वामी वही होता है जो तीन लोक के प्रत्येक प्राणी को शान्ति दे, तीन लोक में सुख का सृजन करे।

तीर्थंकर का जब जन्म होता है तब एक क्षण के लिए नरक में भी सुख हो जाता है, सारा कष्ट समाप्त हो जाता है। तीर्थंकर के निर्वाण के समय भी समग्र लोक में सुख, शान्ति व्याप्त होती है। मैत्री की धारा हृदय में प्रवाहित होती है।

ऐसे दिव्य स्वरूप की भावना करें और भावें कि आने वाला जीव अपने जीवन में सभी के लिए कल्याणकारी, सुख देने वाला एवं सभी के साथ मैत्री भाव सहित रहने वाला एक सौम्य, शान्त स्वभावी जीव होगा।

श्लोक 32 -
संसार में यश प्राप्ति का कारक है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ कल्पना करें जैसे आकाश में देवता दुन्दुभि बजाते हुए शुभ सम्पत्ति प्रदाता प्रभु के द्वारा बताए कल्याणमार्ग के यश की घोषणा करते हैं, उसी प्रकार ऋषभदेव प्रभु के समान ही आने वाला जीव लोक कल्याण भावों से युक्त हो तथा उसका सुयश संसार की सभी दिशाओं में व्याप्त हो।

श्लोक 33 एवं 35 -
मनमोहक, मन-भावन सर्वप्रिय, सर्व हितकर आनन्द विभोर करने वाली सुस्पष्ट, कुशल विलक्षण समाधानकारी वाणी प्राप्ति का कारक।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इन श्लोकों के शुद्ध उच्चारण के साथ कल्पना करें कि समवसरण में प्रभु की दिव्य ओजस्वी वाणी को सभी प्राणी अपनी अपनी भाषा में समझते हुए आनन्द विभोर हो रहे हैं और उस वाणी को वे श्रद्धापूर्वक अपने आचरण में उतारकर अपने जीवन को सफल बनाते हैं। इन भावों को मन में भाते हुए विचारें कि आने वाला जीव प्रभु ऋषभदेव के समान ही सबका चित्त हरने वाली दिव्य मधुर वाणी वाला हो।

श्लोक 34 -
सौम्यता और तेजस्विता की प्राप्ति तथा जीवन में सुख-शान्ति का आगमन ।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः

इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ कल्पना करें प्रभु के दिव्य स्वरूप का जिसका तेज हजारों सूर्य से भी अधिक होते हुए भी, उनका सामिप्य चंद्रमा जैसी शीतलता प्रदान कर रहा है। इन भावों के साथ भावना करें कि आने वाला जीव प्रभु के समान महान तेजस्वी स्वरूपवान हो जिसके सामिप्य से, साथ से सभी को आनन्द एवं शान्ति की अनुभूति हो।


भक्तामर स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण के वीडियो हमारे youtube channel -religiousraaga
पर जाकर आप देख सकते हैं। इसका लिंक नीचे दिया गया है-
 https://www.youtube.com/playlist?list=PLh19FvlD3BpoLMz4gSrdwX8uFqAKcsvwu

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Wednesday, 6 March 2019

श्लोक 23-24 के भाव एवं लाभ (आंतरिक शक्ति का जागरण एवं आत्मशुद्धि )

श्लोक 23 के भावः
 
जब भक्त अपने आराध्य से आत्मा से जुड़ जाता है तो भगवान भक्त के हृदय में समा जाते हैं। आचार्यश्री मानतुंग का हृदय भक्ति से परिपूर्ण था इसलिए उन्होंने ऋषभदेव के लिए इन दो श्लोकों में त्वाम् अर्थात् तुम से संबोधित किया।

आचार्यश्री कहते हैं - मुनिजन तुम्हें परम पुरुष कहते हैं (यहाँ मुनि का अर्थ ज्ञानी से है)। आपका बाह्य स्वरूप भी मनोहारी है और अंतरंग भी अत्यन्त अनुपम है। अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों ही उत्कृष्ट हैं, श्रेष्ठ हैं। इस उत्कृष्ठ काया और आत्मा के द्वारा आप वीतराग, केवली बने हैं। मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। इसलिए परम पुरुष हैं। आपकी दूसरी विशेषता है आदित्यवर्ण । सब रंग आपमें से ही निकलते हैं, इसीलिए आप अनुपम हैं, दोषरहित हैं, निर्मल हैं, तम से परे हैं। तुम्हारा सान्निध्य पाकर, मनुष्य वास्तव में मृत्यु को जीत लेता है। अमर हो जाता है, परमात्मा बन जाता है। इसीलिए तुम्हारे अतिरिक्त शिवपद - मोक्ष की प्राप्ति का दूसरा कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं है। तुम्हारी प्राप्ति, तुम्हारी सन्निधि एकमात्र मार्ग है।

इस श्लोक में आचार्यश्री ने भगवान् ऋषभदेव के आदित्यवर्ण अर्थात अरुण (उगते सूर्य सा लाल रंग)  रंग के रूप में आंतरिक शक्ति की विशेषता को बताया है। उन्हें निर्मल तथा तम (पाप) से परे बताया है। मोक्ष मार्ग प्रदाता बताया है।

इस श्लोक की नियमित साधना से आंतरिक शक्ति का जागरण एवं पापवृत्ति से मुक्ति प्राप्त होती है।आत्म कल्याण की ओर बढ़ते हैं।

श्लोक 24 के भावः
 
आचार्य श्री मानतुंगजी अगले श्लोक में कह रहे हैं - हे प्रभो ! आप अव्ययी (अविनाशी) हैं। महान ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं। एक अक्षर के अनन्त-अनन्त पर्यवों का ज्ञान है आपको, इसलिए आप अव्ययी हैं। आप अशरीरी हैं, मुक्त हैं इसलिए आप अविनाशी हैं। आप विभु हैं, व्यापक हैं, समर्थ हैं। अचिन्त्य हैं, आपकी महिमा असीमित है। आप असंख्य हैं, आपके गुण, विशेषता अगिनत हैं, कोई भी इनका आख्यान करने में समर्थ नहीं है। आप आद्य हैं। प्रथम तीर्थंकर हैं, प्रथम राजा हैं। आप ब्रह्मा हैं। आपने सृष्टि अर्थात् समग्र समाज व्यवस्था का सृजन किया है। आप ईश्वर हैं। अनन्त हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, चारित्र, शक्ति सामर्थ्य से सम्पन्न हैं। अनंगकेतु हैं। अनंग कामदेव को कहा गया है और केतु का उदय होता है तब क्षय, संहार होता है। अतः आप काम का क्षय करने वाले हैं। आप योगीश्वर हैं। आपने सारे योगों को जाना था, योगियों में प्रथम योगी हैं। अनेक हैं, अनेक भी हैं और एक भी हैं क्योंकि आप मुक्त हो गये हैं। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त होने के बाद भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। इस अपेक्षा से एकत्र अवगाहन की दृष्टि से आप एक हैं और स्वतंत्रता की दृष्टि से, आत्मा की दृष्टि से आप अनेक हैं। आप ज्ञानस्वरूप हैं। अज्ञान का सर्वथा क्षय होने के कारण आप ज्ञानस्वरूप हैं। आप अमल हैं। आपके रज और मल क्षीण हो गये हैं इसलिए आप अमल हैं।

इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव के विराट व्यक्तित्व के अनेकों गुणों का चयन कर आचार्यश्री ने एक नयनाभिराम माला गूंथी। यह श्लोक प्रभु की विशेषताओं का मनोरम वर्णन कर रहा है। इसमें भक्ति, ज्ञान और चरित्र तीनों का समन्वय है।

इस श्लोक का श्रद्धा एवं भावपूर्वक किया गया जप-ध्यान अंतर में इन सुन्दर गुणों की जागृति प्रारम्भ करता है। साधक आत्मशुद्धि की ओर बढ़ता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Tuesday, 5 March 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 21-22 के भाव एवं लाभ (सौम्य सौभाग्य प्राप्ति एवं ज्ञान ज्योति का जागरण)


श्लोक 21 के भावः

भगवान श्री आदिनाथ की स्तुति का प्रवाह सतत् गतिशील है। आचार्य मानतुंगजी कह रहे हैं- मैंने हरि, हर आदि देवों को, जो अन्य दर्शनों के नायक हैं, पहले देख लिया यह अच्छा ही हुआ। अर्थात् मैंने हरि के दर्शन को पढ़ लिया, हर के दर्शन को पढ़ लिया । सभी अन्य दर्शनों को पढ़ने के बाद आपको पढ़ा तो मुझे परम संतोष मिला ।

आचार्यश्री कहते हैं - मैंने उन्हें पढ़ने के बाद आपका अनेकान्त दर्शन पढ़ा जिसके बाद अन्य कोई दर्शन अब मेरे चित्त का हरण नहीं करता। मैंने अनेकान्त दर्शन को पढ़ा तो परम संतोष का अनुभव हुआ। मुझे जो आनन्द और तृप्ति मिली, वह अपूर्व है, इसलिए अन्य दर्शनों के प्रति मेरा आकर्षण समाप्त हो गया।

आचार्य श्री मानतुंगजी ने अपनी अपूर्व संतुष्टि को कुछ इस स्वर में अभिव्यक्ति दी - मैंने एकांतवादी दर्शनों को देखा, समझा, अनुभव किया और उसके बाद अनेकान्त दर्शन को समझा। इसको समझने के बाद यह जाना कि अनेकान्त दर्शन में सारा समाधान उपलब्ध है। इसे जानकर हृदय शीतल हो गया। अब किसी भी अन्य दर्शन के प्रति मन आकृष्ट नहीं होता।

इस श्लोक में आचार्यश्री ने भगवान् ऋषभदेव के ज्ञान की विशेषता को प्रकट किया है। इस श्लोक की नियमित साधना से सौम्य सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
 
श्लोक 22 के भावः
 
आचार्यश्री अगले श्लोक में कह रहे हैं - प्रभु ! धन्य हैं आपकी माता, जिन्होंने ऐसे अनुपम पुत्र को जन्म दिया। सैंकड़ों-हजारों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु किसी माता ने ऐसे पुत्र को जन्म नहीं दिया, जो आपकी तुलना में आ सके। महापुरुषों के माता-पिता को भी धन्यवाद दिया जाता है। आचार्यश्री आगे कहते हैं - सब दिशाओं में नक्षत्र और तारे हैं । प्रकाश सभी दिशाओं में आता है, परन्तु सूर्य को सब दिशाएं उत्पन्न नहीं करती हैं। सूर्य को पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है। 

आचार्यश्री ने बहुत ही सुन्दर तुलना की है- प्रकाश होना एक बात है, प्रकाशपुंज को प्रकट करना दूसरी बात है। जब प्रकाशपुंज प्रकट होता है तो सभी दिशाएं प्रकाशित हो जाती हैं। माता मरुदेवा ने उस प्रकाशपुंज को जन्म दिया जससे पूरा अध्यात्म जगत् आलोकित हो गया। 

आचार्यश्री माँ और पुत्र दोनों की विशेषताओं को बता रहे हैं। गुणात्मक विश्लेषण कर रहे हैं। गुणों की स्तुति कर रहे हैं। माँ और पुत्र के अतुलनीय चरित्र को सामने रखकर आचार्यश्री ने एक ही वाक्य में सब कुछ कह दिया - किसी माँ ने आप जैसा पुत्र प्रसूत नहीं किया।

अनन्त गुणों के धारक प्रभु का ध्यान करते हुए उनकी माता के प्रति श्रद्धा नमन के साथ श्लोक 22 की साधना से अंतर में ज्ञान ज्योति का जागरण प्रारम्भ होता है। 

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Friday, 1 March 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 19 -20 के भाव एवं लाभ (दुर्लभ ज्ञानराशि स्रोत के उद्घाटक)




श्लोक 19 के भावः

आचार्य मानतुंगजी भगवान श्री आदिनाथ की स्तुति करते हुए भक्तिरस में सराबोर हो गये। वे भक्ति के उस शिखर पर पहुँच गये जहाँ भक्त को भगवान के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता। वे कहते हैंः हे नाथ ! रात में चन्द्रमा की क्या जरूरत है और दिन में सूर्य की क्या आवश्यकता है? क्यों ? क्योंकि जब आपका मुखारबिन्द तम का नाश कर रहा है तो फिर किसी अन्य प्रकाश की क्या आवश्यकता है ?  चन्द्रमा क्या आपके मुखारबिन्द से अधिक शीतलता अथवा शान्ति देगा ? सूर्य और चन्द्र की आभा आपके मुख की आभा से अधिक कान्तिमान् नहीं हैं।

एक सामान्य व्यक्ति चाँद और सूरज को निरर्थक नहीं कह सकता । किन्तु एक भक्त अपने भगवान में ही प्रकाश देखता है और भगवान में ही शान्ति का अनुभव करता है तब उसके लिए न अन्यत्र प्रकाश और न ही शान्ति की जरूरत होती है।

आचार्यश्री कहते हैं - चावलों की खेती पक जाने के बाद जल के भार से झुके हुए बादलों की हमें कोई जरूरत नहीं है। अर्थात् जब मुझे प्रकाश मिल गया, शान्ति मिल गयी और सबसे प्रमुख, प्रकाश और शान्ति देने वाले मेरे प्रभु मुझे मिल गये तो अब मुझे और क्या चाहिये ?
 
श्लोक 20 के भावः
 
इसी धारा में आगे बढ़ते हुए आचार्यश्री अगले श्लोक में कह रहे हैं - प्रभु ! आपमें ज्ञान का जो प्रकाश है, वह मुझे अन्यत्र दिखाई नहीं देता। अर्थात् आपने आत्मा का जो दर्शन दिया वैसा किसी ने नहीं दिया। ज्ञान का प्रकाश जैसा आपमें दिखाई दे रहा है वैसा अन्यत्र हरि-हर आदि में भी नहीं दिखता। आचार्यश्री यहाँ किसी की उपेक्षा नहीं कर रहे हैं न वे मात्र ऐसा श्रद्धावश या द्वेषवश कह रहे हैं। उन्होंने सभी दर्शनों का अध्ययन किया था उस आधार पर कह रहे हैं जैसा ज्ञान आपमें, एक सर्वज्ञ में, केवल ज्ञानी आत्मा में प्रस्फुरित हो रहा है, वैसा अन्य दर्शन में नहीं दिखाई देता। जो तेज मणि में होता है वह किसी काँच में नहीं दिखाई देता। काँच सूर्य की किरणों के प्रकाश से चमकता तो है पर जो आभा और कान्ति मणि में होती है वह काँच में नहीं पाई जा सकती। 

इन दोनों श्लोकों में आचार्यश्री ने ज्ञान और उसकी ज्योति की स्तवना की है।
 
इन दो श्लोकों के (19 एवं 20) श्रद्धापूर्वक जप-साधना से ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है।
 
श्लोक 12 से 20 तक के नौ श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान विकास की दृष्टि से ये बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं। इनकी श्रद्धा पूर्वक साधना से दुर्लभ ज्ञानराशि का स्रोत प्रकट हो सकता है।
 
भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)

E-mail : religiousraaga@gmail.com

Saturday, 23 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 17-18 के भाव एवं लाभ



 श्लोक 17 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः प्रभु ! आप न कभी अस्त होते हैं, न राहु के द्वारा ग्रस्त होते हैं। संपूर्ण जगत को आप एक साथ प्रकाशित करते हैं। सघन बादल भी आपके इस महाप्रभाव को निरुद्ध नहीं कर सकते । हे मुनीन्द्र ! आपकी यह महिमा सूर्य से भी बढ़कर है।

आचार्यश्री ने सूर्य का विश्लेषण किया-सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है किन्तु अस्त भी होता है। सूर्य राहु के द्वारा ग्रस्त भी होता है और पूर्ण सूर्य ग्रहण में अन्धकार-सा छा जाता है। सूर्य एक बार में सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है। कहीं रात होती है तो कहीं दिन, इस प्रकार सूर्य का सर्वत्र एक समान प्रकाश नहीं होता है। बादलों के छा जाने पर सूर्य का तेज छिप जाता है। अतः भगवान ऋषभदेव की तुलना सूर्य से कैसे की जा सकती है? भगवान ऋषभदेव तो सूर्य से बहुत बढ़कर महिमा वाले हैं। 

अब इन तथ्यों पर यदि विचार करें कि प्रभु अस्त नहीं होते-केवलज्ञानी के सभी आवरण क्षीण हो जाते हैं। वह ज्ञान कभी अस्त नहीं हो सकता। दूसरा-प्रभु राहु से ग्रस्त नहीं होते। राहु छाया ग्रह है, छाया का वर्ण कृष्ण वर्ण माना गया है। पाप का भी वर्ण कृष्ण वर्ण है। प्रभु ने मोहनीय कर्म को पूर्णतः क्षीण कर दिया इसलिए आपको कोई दुष्कृत प्रभावित नहीं कर सकता। और पाप बन्ध नहीं हो सकता इसलिए आप राहु से कभी ग्रस्त नहीं होते। तीसरा- आपके ज्ञानावर्णीय और मोहनीय कर्म क्षीण हो चुके हैं अतः आपका ज्ञान सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। तीनों लोकों को एक साथ प्रकाशित कर रहा है। चौथा-प्रभु का ज्ञान मेघ द्वारा आच्छन्न नहीं है। अर्थात् प्रभु की शक्ति का विकास अनन्त है। इस शक्ति को कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता। 

जिसके ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय और अंतराय कर्मों को क्षीण कर दिया हो वह सूर्य से भी बढ़कर तेजस्वी होता है। आचार्यश्री कहते हैं - इसलिए प्रभु! मैं आपकी तुलना सूर्य से कैसे कर सकता हूँ। सूर्य आपके सामने बहुत छोटा है।

आचार्यश्री ने भाव कुछ इस प्रकार कहे हैं-जितनी धैर्यशीलता, आत्म-नियंत्रण की शक्ति बढ़ेगी उतने ही हम राग-द्वेष, कषायों से अप्रभावित रहेंगे, अविचलित रहेंगे।

श्लोक 18 के भाव-
इसी क्रम में अगले श्लोक में आचार्यश्री ने चन्द्रमा से तुलना करते हुए कहा है- प्रभु ! चन्द्रमा तो उदय भी होता है और अस्त भी। परन्तु आपका ओजमय मुखमण्डल रूपी चन्द्र सदा ही दैदिप्यमान रहता है। 

हजारों चन्द्र-सूर्यों से भी अधिक कान्तिमय आपकी आभा तीनों लोकों को प्रकाशित करती है। चन्द्रमा रात्रि का अन्धकार दूर करता है परन्तु आपका तेज मोह के महा अन्धकार को दूर करता है। 

चन्द्रमा बादलों की ओट में छिप जाता है किन्तु आपका प्रकाश तो सदा ही प्रकाशमान रहता है। आपकी निर्मल ज्योति को राग के बादल कभी नहीं ढक सकते। चन्द्रमा घटता बढ़ता है परन्तु आपका मुखचन्द्र सदा अनन्त कान्तिधारक है। 

इन दो श्लोकों के (17 एवं 18) श्रद्धापूर्वक जप-साधना से तृष्णा, दुःख, अशांति, घृणा, कुण्ठा - इन सभी विकारों से मुक्ति प्राप्त होती है और अन्तर ज्ञान ज्योति प्रकट हो, पवित्र जीवन स्रोत प्रारम्भ करती है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Sunday, 17 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 15-16 के भाव एवं लाभ (आध्यात्मिक उन्नति का महामंत्र)

 श्लोक 15 एवं 16 आध्यात्मिक उन्नति के महामंत्र कहे जाते हैं।

श्लोक 15 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः हे वीतराग! आपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति कर ली है, राग पर विजय प्राप्त कर ली है। जो प्रभावित होने की अवस्था है उसे समाप्त कर दिया। इस स्थिति में कोई निमित्त आपको विचलित नहीं कर पाए, फिर वे देवांगनाएं ही क्यों न हो। 

हवा तेज चले या धीमी वह प्राणी जगत् को प्रभावित करती है। तेज तूफानी हवाएं वृक्षों को उखाड़ सकती हैं तथा धरती पर अस्त-व्यस्तता फैला देती हैं। प्रलयंकारी तूफानों से छोटे पर्वत भी कंपायमान हो जाते हैं। परन्तु क्या प्रलयंकारी तूफानी हवाएं मंदराचल पर्वत को भी विचलित कर सकती हैं? नहीं, वह किसी प्रकार से विचलित नहीं होता। प्रभु, आपका धैर्य भी मंदराचल पर्वत की भाँति अप्रकंप है, अविचल है। आपका आत्मबल और कषाय-विजय इतने दृढ़ हैं कि राग का कोई भी हेतु आपको विचलित नहीं कर सकता तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

आचार्यश्री ने भाव कुछ इस प्रकार कहे हैं-जितनी धैर्यशीलता, आत्म-नियंत्रण की शक्ति बढ़ेगी उतने ही हम राग-द्वेष, कषायों से अप्रभावित रहेंगे, अविचलित रहेंगे।

अब आचार्यश्री प्रभु के सौन्दर्य से आगे बढ़ कर, गुणों की व्याख्या कर, स्तुतिपाठ को आगे बढ़ाते हैंः
जहाँ राग पर विजय होती है वहाँ ज्योति प्रकट होती है। राग-द्वेष और कषाय ये तमोगुण पैदा करने वाले तत्व हैं। वीतरागता अात्मा को प्रकाशित करने वाला तत्व है।
इसी आधार पर, श्लोक 16 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः हे प्रभु! आप ज्योतिर्मय हैं। प्रकाशमय दीप हैं जिसे न बाती की आवश्यकता है न तेल की और न ही जिसकी ज्योति किसी प्रकार का धूँआ प्रकट करती है। और जिसका प्रकाश तीनों जगत् को प्रकाशित करता है।

आचार्यश्री कह रहे हैं- प्रभु ! मैं एक दीपक से आपकी तुलना कैसे कर सकता हूँ क्योंकि दीपक सीमित क्षेत्र में ही प्रकाश करता है, हवाओं के प्रकंप से उसकी ज्योति काँप जाती है, बुझ जाती है, उससे धूँआ निकलता है, परन्तु आपकी ज्योति तो अप्रकंप है, सदा ही ज्योतिर्मय रहती है तथा निर्धूम है। आपका ज्ञान-प्रकाश अपूर्व है। आपके ज्ञान-प्रकाश से कहीं भी अंधकार नहीं रहता। आपका केवल ज्ञान तीनों लोकों को प्रकाशित करता है। 

इस प्रकार इन दो श्लोकों में (15 एवं 16) आचार्यश्री मानतुंगजी ने आंतरिक शक्ति का उद्भावन किया है। धैर्य विकास की वृद्धि करते हुए अविचलन एवं प्रकाश का संदेश दिया है। इन दोनों श्लोकों की श्रद्धापूर्वक ध्यान साधना अविचलन, इंट्यूशन पावर (अंतर्दृष्टि) के जागरण का कारक बनती है।

इस दिशा में ये दोनों श्लोक महामंत्र का कार्य करते हैं। ये दोनों श्लोक आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग हैं।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com