Wednesday, 23 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 7 - 9 के भाव एवं लाभ



कहा जाता है - ध्यान की साधना करने वाला ढाई मिनिट में जितने कर्मों को क्षीण करता है, तपस्या करने वाला लम्बे समय में भी उन कर्मों को क्षीण नहीं कर पाता। जिसके जीवन में ध्यान की साधना है, वहाँ समता का उदय होता है। इसी गहन बात को आचार्यश्री मानतुंगजी ने बहुत ही सुन्दर तरीके से सातवें , आठवें तथा नवें श्लोक में समझाया है।

श्लोक सात के भावों को समझते हैं। आचार्यश्री कह रहे हैं- हे प्रभु ! आपकी स्तुति से प्राणियों के अनेक जन्म-परंपरा से बंधे हुए पापकर्म क्षण भर में क्षय हो जाते हैं। जैसे संसार में व्याप्त भौरों के समान गहन काला अंधकार सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है।

इतना सघन और इतना गहरा अन्धकार एक सूर्य के आगमन से नष्ट हो सकता है तो फिर भगवान ऋषभदेव की साधना, आराधना और स्तुति करने वाले व्यक्ति के भीतर प्रकाश क्यों नहीं जागृत होगा? उसके भीतर जो भी अंधकार रूपी पाप संचित है, वह क्षण में नष्ट क्यों नहीं हो सकता? अर्थात् जो प्रभु ऋषभदेव की आराधना पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से करता है वह जन्म-परंपरा से संचित पापकर्मों से मुक्त होने लगता है। वह पापों से मुक्त हो जाता है। सूर्य का प्रकाश इतना तेज होता है कि उसके उदय होने पर अन्य सभी ग्रह-नक्षत्रों का तेज उसमें विलीन हो जाता है। इसी प्रकार प्रभु की साधना में लीन व्यक्ति के जीवन में, प्रभु के तेज के दिव्य प्रभाव से, सभी व्यवधान समाप्त हो जाते हैं।

श्लोक सात के भक्ति पूर्वक साधना से जन्म-परंपरा से बंधे हुए पाप क्षीण होना प्रारम्भ हो जाते हैं। और हम अात्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने लगते हैं। आत्मा में शुभ भावों की जागृति के साथ ही आत्मोद्धार, कल्याण मार्ग प्रशस्त होने लगता है। जीवन के कष्ट, व्यवधान सभी दूर होने लगते हैं। क्योंकि सभी व्यवधानों, कष्टों का मूल कारण जन्म-परंपरा से आत्मा के साथ बंधे हुए पापकर्म ही तो होते हैं।

श्लोक आठ में आचार्यश्री कह रहे हैं- हे प्रभु! मैं अल्प बुद्धि होते हुए भी, मेरे द्वारा रचित यह स्तोत्र आपके प्रभाव से, सज्जनों के चित्त का हरण करने वाला होगा, ऐसा मानकर मेरे द्वारा आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जा रहा है। जैसे कमलिनी के पत्तों पर पड़ी हुई पानी की बूंद भी उन पत्तों के प्रभाव से मोती के समान शोभा पाती है।

आचार्यश्री कहते हैं मेरे द्वारा की जा रही स्तुति रचना सामान्य है फिर भी वह विद्वानों का चित्त हरण कर लेगी क्योंकि मेरा आराध्य पूर्ण सामर्थ्यवान है, अनन्त शक्ति का धारक है। और जिसका हम संसर्ग करते हैं उसका प्रभाव होना तो निश्चित ही है। 

जैसे पानी की साधारण बूंद यदि गर्म लोहे के संपर्क में आती है तो पता ही नहीं चलता किधर गई, और उसी पानी की बूंद कमलिनी के पत्ते पर गिरकर मोती के आकार में दिखाई देती है। यह उस कमलिनी के पत्ते का प्रभाव ही तो है।

श्लोक आठ के भक्ति पूर्वक साधना से अरिष्ट योग समाप्त हो जाते हैं। आपत्ति, विपत्ति के योगों से मुक्ति मिलती है।

स्तवन वह होता है जिसके प्रभाव से समस्त दोष दूर हो जाते हैं। स्तवन से अज्ञान का नाश होता है। मिथ्या दृष्टिकोण दोष दूर होता है। अनाचार समाप्त होता है और चारित्र का लाभ मिलता है और दुर्लभ बोधि सुलभ हो जाती है।

हमारे मन में प्रश्न उठता होगा कि समस्त दोषों का नाश कैसे होता है? इसका उत्तर है- जिस गुण की चर्चा करें, बार बार ध्यान करें वही गुण हमारे अंतर में प्रविष्ट हो जाता है और अंतर से अवगुण समाप्त होने लगते हैं। यह योग का गुण-संक्रमण का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।

आचार्यश्री, श्लोक नौ के माध्यम से कह रहे हैं- प्रभु! आपकी स्तुति तो बहुत बड़ी बात है, आपके केवल नाम उच्चारण से ही संसारी जीवों के समस्त पापों का विनाश हो जाता है। सूरज धरती से अनन्त ऊँचाई पर होते हुए भी उसकी एक नन्हीं-सी किरण भी सरोवर में स्थित कमल को विकसित कर देती है।

अर्थात् आपकी चर्चा सूर्य की प्रभा जैसी है और आपका स्तवन तो प्रत्यक्ष रविमंडल ही है। आचार्यश्री प्रभु के स्तवन को सूर्य के समान मानते हुए कहते हैं कि उनकी एक किरण भी प्राप्त हो जाए तो मेरा हृदय-कमल विकसित हो जाएगा। 

सूर्य की एक छोटी-सी किरण का प्रभाव है कि वह धरती पर हजारों-लाखों कमलों को विकसित कर देती है। इसी प्रकार प्रभु की पूर्ण भक्ति भाव से की गयी चर्चा मनुष्य के पापों को क्षय करने का अनन्त सामर्थ्य रखती है।

श्लोक नौ की भक्ति पूर्वक साधना, पापों का क्षय करती है तथा मनोकामनाओं की पूर्ति का कारक सिद्ध होती है। मन में पवित्र भावों की जागृति प्रारम्भ होती है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं या
यदि आप अपने क्षेत्र में इसकी कार्यशाला आयोजित कराना चाहते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Monday, 14 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 5 एवं 6 के भाव एवं लाभ


श्लोक पांच के भावों को समझते हैं।

आचार्यश्री मानतुंगजी प्रभु आदिनाथ की भक्ति में पूर्णतः तल्लीन हो गये । वे बोले- हे मुनीश ! शक्तिहीन होते हुए भी मैं केवल आपकी भक्ति से प्रेरित होकर आपका यह स्तवन करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। जैसे प्रीति के कारण हिरणी भी अपनी शक्ति का विचार किये बिना ही अपने शिशु की रक्षा करने के लिए क्या सिंह के सामने नहीं कूद पड़ती है?

उन्होंने विचार किया कि मुझे डरने की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि मैं तो उस प्रभु की भक्ति कर रहा हूँ जो त्रिलोक स्वामी हैं। मैं अपनी बुद्धि की अल्पता का क्यों भान करूँ? मेरी तो भक्ति ही मेरा सहारा बनेगी। उसी के सहारे मैं स्तुति करूंगा।

इस श्लोक में आचार्यश्री के भक्तिपूर्ण समर्पण का अनुभव किया जा सकता है। जब भक्त पूर्ण श्रद्धा से अपने आराध्य की भक्ति में लग जाता है तो उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। अपने शक्तिहीन होने की भावना के ऊपर वह विजय प्राप्त कर लेता है। 

यही भक्ति भावना हमारे आत्मिक साहस वृद्धि का कारक बनती है। इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से अंतर में हर परिस्थिति से सामना करने का साहस जागृत होता है। स्वयं की आत्मशक्ति पर विश्वास तथा अदम्य साहस के साथ सफलता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
 
श्लोक 6
आचार्यश्री श्रद्धा और भक्ति के साथ आगे कह रहे हैं- हे प्रभु ! भले ही ज्ञानी, विद्वान पंडित मेरे इस प्रयास की हँसी उड़ाएं, मेरा उपहास करें परन्तु मैं तो आपकी स्तुति करूंगा। यह आपकी भक्ति का ही प्रताप है जो मुझे आपकी स्तुति करने को वाचाल कर रही है। विवश कर रही है। जैसे वसंत ऋतु में कुहूकती, कोयल की मधुर एवं सुरीली कुहुक का कारण निश्चय रूप से आम की मंजरियों का समूह ही होता है। 

आचार्य श्री में भक्ति का संवेग प्रबल हुआ। संवेग और बुद्धि के प्रारंभिक द्वन्द को पार कर आचार्यश्री प्रभु की स्तुति में तन्मय हो गये। 

इस समर्पण भाव को जब हम अपने अंतर में अनुभव करते हैं, अपने आप को सरलता से समर्पित करते ही हमारे अंतर के अहं का समापन हो जाता है और सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन की जागृति प्रारम्भ होने लगती है।इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से अंतर में ज्ञान जागृति का प्रारम्भ हो जाता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे) 
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Tuesday, 8 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 4 के भाव एवं प्रभाव




आचार्यश्री मानतुंगजी ने स्वयं को प्रभु के चरणों में बालक के रूप में प्रस्तुत कर दिया। बालक में समर्पण होता है। निश्छलता होती है। उन्हीं भावों से पूर्ण श्रद्धा से वे प्रभु की स्तुति में तल्लीन हो गये।

आचार्यश्री आगे कहते हैं- प्रभु!
मैं आपके अनन्त गुणों की स्तुति नहीं कर सकता। जब देवताओं के गुरु बृहस्पति के समान बुद्धि वाले भी आपके गुणों की स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं तो और कौन ऐसा करने में समर्थ है? 

क्या कोई व्यक्ति अपनी भुजाओं से प्रलयंकारी समुद्र, जिसमें मगरमच्छों का समूह उछालें भर रहा हो, तैर कर पार करने में समर्थ हो सकता है? कदापि नहीं।

वैसे ही आपके अनन्त गुणों की स्तुति कौन करने में समर्थ है? जब बृहस्पति के समान बढ़े से बढ़ा व्यक्ति भी आपके अनन्त गुणों की स्तुति करने में सक्षम नहीं तो मेरी अक्षमता क्या महत्व रखती है?

इन्हीं विचारों के साथ आचार्यश्री ने भक्ति पूर्वक प्रभु की स्तुति आरम्भ की। एक नये आत्मविश्वास के साथ कि मैं प्रभु के अनन्त गुणों की स्तुति का सामर्थ्य नहीं रखता परन्तु भक्ति में मैं कैसे भी कम नहीं हूँ।

आचार्यश्री नें इस श्लोक के माध्यम से अपने आत्म सामर्थ्य को पहचानने का, उसपर विश्वास का संदेश दिया है। जब हम पूर्ण विश्वास के साथ भक्ति पूर्वक परमात्मा को समर्पित होते हैं तो अपनी आत्मा के साथ परमात्मा का, प्रभु का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जिसके महाप्रभाव से हमारे अंतर में प्रभु के प्रति भक्ति की धारा प्रवाहित होने लगती है जो विश्वास की नयी ज्योति जागृत करती है। 

इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से आत्म विश्वास जागृत होता है।स्वयं की आत्मशक्ति पर विश्वास अर्थात् कार्यों में पूर्ण विश्वास के साथ सफलता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।


यदि आप प्रथम चार श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। - राजेश सुराना (पुणे) E-mail : religiousraaga@gmail.com

Sunday, 6 January 2019

भक्तामर स्तोत्र ः श्लोक 3 भाव एवं फलश्रुति



आशा है प्रथम दो श्लोक के भाव आपने पढ़े और समझे होंगे। आज तीसरे श्लोक के विषय में जानेंगे।

आचार्यश्री ने समर्पण भाव से प्रभु के चरणों में वन्दन करते हुए उन दिव्य चरणों का आलम्बन लिया। संकल्प किया कि मैं प्रभु ऋषभदेव की स्तुति करूँगा। संकल्प के साथ ही आचार्यश्री ने मनन किया कि बुद्धि में मैं इन्द्र अथवा अन्य ज्ञानियों जैसा बुद्धिमान तो नहीं हूँ। फिर भी मैं प्रभु की स्तुति करूँगा अतः उन्होंने स्वयं को प्रभु के चरणों में स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर दिया।

आचार्य कहते हैं प्रभु! बुद्धि की कमी मेरे लिए खेद का विषय नहीं है क्योंकि मैं आपके समक्ष स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।मैंने अपनी बुद्धि को तोला नहीं और आपकी भक्ति का संकल्प कर लिया। मैं आपके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हूँ। मेरा यह स्तुति करने का क्रम उस बालक जैसा ही है जो जल में चन्द्रमा के बिम्ब को पकड़ने की चेष्ठा करता है। उसकी इस बाल चेष्ठा पर कोई नहीं हंसता बल्कि उसका कौतुक करते हैं। मेरे द्वारा आपके अनन्त गुणों का गुणगान बालचेष्ठा समान ही तो है। बालक सरल भाव से जैसे यह कार्य करता है उसी प्रकार मैं भी पूर्ण समर्पण से सरलता पूर्वक आपकी स्तुति कर रहा हूँ।

इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से मैत्री भाव जागृत होता है।
प्रथम तीनश्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं।  -राजेश सुराना (पुणे)
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Tuesday, 1 January 2019

भक्तामर स्तोत्र : उच्चारण विधि एवं श्लोक 1 & 2 के भाव



नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं!

भक्तामर स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण की टैक्नीक हमनें अपने religiousraaga channel पर देना प्रारम्भ किया है। आप वहाँ से शुद्ध उच्चारण को सीख-समझ सकते हैं।इसकी Link नीचे भी दी गयी है।

आचार्य मानतुंगसूरिजी ने इस स्तोत्र में प्रभु आदिनाथ के गुणों और रूप की अत्यन्त अनुपम व्याख्या की है। इनके भावों को जब गहनरूप में जानने का प्रयास करते हैं तो अंतर में एक दिव्यता का अनुभव होने लगता है।

प्रथम दो श्लोक युग्म श्लोक कहे जाते हैं जिनमें आचार्यश्री ने प्रभु को विनयपूर्वक वन्दन् किया है। तथा प्रभु के दिव्य चरणों के गुणों को समझाया है। आचार्य कहते हैं - मैंनें प्रभु ! आपके दिव्य चरणों के स्पर्श से देवों के मुकुटों की मणियाँ प्रकाशित हो उठीं। अर्थात् आपके दिव्य चरणों के पावन स्पर्श मात्र से अंतर के कषाय रूपी अन्धकार का पूर्ण नाश हो जाता है। और आत्मा अपने शाश्वत दिव्य गुणों से प्रकाशित हो उठती है। मैंने आपके उन दिव्य चरणयुगल का आलम्बन लिया है। मेरे अंतर के सभी कषाय-पाप समाप्त हो गये अतः निश्चय ही मेरे भव-भव के पाप-कर्म क्षीण हो गये हैं।

यदि हम प्रभु के चरणों में पूर्ण भाव से अपने आप को समर्पित करते हैं और विनयपूर्वक वन्दन करते हैं तो हमारे सभी पूर्व संचित पाप-कर्म क्षीण हो जाते हैं। हम जो भी कष्ट आदि भोगते हैं वह हमारे ही संचित पाप-कर्मों का प्रतिफल ही है।

प्रथम श्लोक का विनयपूर्वक,  नीचे दिये गये भावों के साथ यदि नियमित सुबह उठते ही, पठन करते हैं तो कुछ ही महीनों में हम अनुभव करेंगे कि हमारी विपदाएं, रुकावटें, तकलीफें स्वतः ही दूर हो रही हैं।


भाव इस प्रकार हैंः हे जिनेश्वर ! मैं पूर्ण भक्तिपूर्वक, समर्पित होकर, आपके दिव्य चरणों में वन्दन्, नमन कर रहा हूँ। मैंने अपने आपको आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। आपके दिव्य चरणों का सहारा लिया है। आपके दिव्य प्रभाव और आशीर्वाद से मेरे अंतर के समस्त कषाय समाप्त हो रहे हैं, मेरी आत्मा ज्ञान ज्योति से प्रकाशित हो रही है, मैं दिव्य आत्म शक्ति का अनुभव कर रहा हूँ। मेरे भव-भव के संचित पाप-कर्म समाप्त होते जा रहे हैं।

द्वितीय श्लोक के भाव इस प्रकार हैंः हे प्रभु! मैं इन्द्र जितना ज्ञानी नहीं हूँ फिर भी मैं आपकी स्तुति का संकल्प करता हूँ। क्योंकि मैं भी आपका भक्त हूँ। 

इस श्लोक का पूर्ण भक्तिभाव से नियमित भाववन्दन् स्वयं में विश्वास एवं दृढ़ संकल्प शक्ति की जागृति करता है।
 

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