Monday, 8 April 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 36 - 37 के भाव एवं लाभ (समृद्धिदायक एवं कषायमुक्ति प्रदाता)


श्लोक 36 के भावः
आचार्यश्री मानतुंगजी ने तीर्थंकर के एक अतिशय - तीर्थंकर जब चलते हैं तो देवता उनके पैरों के नीचे स्वर्ण कमल बना देते हैं, का वर्णन किया है।

आचार्यश्री कहते हैं - हे जिनेन्द्र! नूतन स्वर्ण कमलों के समूह के समान दिव्य कान्ति वाले तथा सब ओर फैलने वाली नख किरणों की ज्योति से अतीव सुन्दर लगने वाले आपके पवित्र चरण जहाँ - जहाँ  आपके चरण पड़ते हैं भक्त देवता गण वहाँ वहाँ स्वर्ण कमलों की रचना करते जाते हैं। ये स्वर्ण कमल कभी न मुर्झाने वाले हैं, सदा खिले ही रहते हैं।

ऐसा माना जात है कि कोटि-कोटि देवता सदा प्रभु की सेवा में रहते हैं। जब हम भक्ति के साथ प्रभु के दिव्य प्रकाशमान चरणों की कल्पना करते हैं और भावना करते हैं कि ये दिव्य चरण हमारे जीवन में आत्मिक समृद्धि का दिव्य प्रकाश लेकर आ रहे हैं। प्रभु के नख-शिख से निकलती स्वर्ण किरणें हमारे अंतर में पापकर्म के अन्धकार को मिटाते हुए ज्ञान के प्रकाश को फैला रही हैं। पूर्ण समर्पण एवं भक्ति पूर्वक प्रभु की इस भाव आराधना से प्रभु की सेवा में रह रहे देवता हमारी समृद्धि का कारक बनते हैं।

श्लोक 37 के भावः

आचार्यश्री समवसरण का सिंहावलोकन कर रहे हैं। वे कहते हैं-प्रभो ! जिस समवसरण में विराजकर आप धर्मोपदेश कर रहे हैं, उस समवसरण में मैंने आपकी जो विभूति देखी, वह अन्यत्र नहीं मिली। अशोक वृक्ष, सिंहासन, चामर, दिव्य छत्र, दिव्य ध्वनि - यह विभूति पर में नहीं दिखाई दी। “पर” का अर्थ है अवीतराग । आचार्यश्री कह रहे हैं- आपकी जो विभूति प्रकट हुई है वह वीतरागता के कारण हुई है. कर्मक्षय के कारण हुई है। आगे वे अपनी बात समझाते हुए कह रहे हैं- अंधकार का नाश करने वाले सूर्य की जैसी प्रभा होती है, वैसी प्रभा चमकते हुए तारों, नक्षत्रों आदि की कैसे हो सकती है?

समवसरण में तीर्थंकर प्रभु के पूर्ण ज्ञान की दशा प्रकट होती है, केवलज्ञान की ज्योति से सारा लोक प्रकाशमान हो जाता है। समवसरण में प्रभु की ध्वनि एक योजन तक सुनाई देती है तथा सत्यधर्म का रहस्य जो प्रभु बता रहे हैं वह सभी जीवों को उनकी भाषा में समझ में आता है। 

ऐसे दिव्य समवसरण की भावपूर्वक कल्पना करते हुए अपने आप को प्रभु के सामिप्य में अनुभव करते हुए भावना करें कि प्रभु आदिनाथ के दिव्य प्रभाव से हमारे अंतर के सभी कषाय (क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ आदि) समाप्त होते जा रहे हैं और प्रभु के दिव्य शान्तिप्रदाता तेज से हमारे अंतर-आत्मा में सुख, शान्ति, आनन्द की अमृत धारा प्रवाहित हो रही है।

इस श्लोक की नियमित साधना से अंतर में कषायों के समापन के साथ ही निर्मल भावों की जागृति प्रारम्भ होती है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Friday, 15 March 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 28 - 35 (गर्भस्थ जीव में गुण एवं संस्कार निर्माण में विशेष प्रभावी)



भक्तामर स्तोत्र के श्लोक 28 - 35 तीर्थंकर के आठ अतिशय, अष्ट प्रातिहार्यों के विषय में हैं।
 
भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् समवसरण में इन्द्रदेव आठ प्रातिहार्यों का रचना करते हैं। ये प्रातिहार्य विशेष महिमा का ज्ञान कराने वाले होते हैं। इन प्रातिहार्यों के साथ प्रभु की दिव्य छवि के मनोरम स्वरूप का ध्यान हमारे जीवन में बहुत कुछ विशेष घटित कर सकता है।

गर्भावस्था के दौरान इन अष्ट प्रातिहार्य वर्णित श्लोकों के शुद्ध उच्चारण के साथ नीचे बताए अनुसार भावना करने पर इनके दिव्य प्रभाव से आने वाला जीव ओजस्वी, सौम्य, मतिमान एवं श्रेष्ठ बुद्धि का धारक, असाधारण प्रतिभाशाली, श्रेष्ठ गुणों वाला, रूपवान, स्वस्थ एवं सभी को प्रिय होता है।


श्लोक 28 -
मानसिक शान्ति प्रदान करता है, उत्तेजना एवं आवेश शान्त करता है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ ऊँचे घने अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान भगवान आदिनाथ का ध्यान करें। भगवान के दिव्य स्वरूप से ऊपर निकलती हुई सुन्दर सुनहरी किरणें घने अशोक पर छा रही हैं ऐसा ध्यान करें।

भगवान के इस दिव्य सौम्य रूप का ध्यान करते हुए भाव करें कि होने वाला जीव भगवान के इन सौम्य शान्त गुणों को धारण कर रहा है।

श्लोक 29 -
आन्तरिक शक्तियों एवं अन्तर्दृष्टि का जागरण। स्फुर्ति, सक्रीयता एवं जागृति वृद्धि में सहायक।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः

इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान भगवान ऋषभदेव का ध्यान करें। उगते हुए सूर्य की लालिमायुक्त किरणें निकलती हुई कल्पना करें। भगवान के इस तेजस्वी रूप का ध्यान करते हुए भाव करें कि होने वाला जीव प्रभु के समान तेजस्वी, ऊर्जावान और ज्ञानवान हो। ये सभी गुण उसमें समाहित हो रहे हैं।

श्लोक 30 -
उत्तेजना एवं आवेश शान्त करता है। मन में आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ प्रभु के स्वर्णिम देह के दोनों ओर डुलते हुए श्वेत चामर की कल्पना करें। जैसे सुनहरे सुमेरु पर्वत के शिखर से दोनों ओर बहते हुए स्वच्छ निर्मल जल की श्वेत जलधारा गिर रही है। जो उगते हुए चाँद जैसी लग रही है। ऐसे ही श्वेत चवंरों के बीच ऋषभदेव भगवान का मनोहर स्वर्णिम स्वरूप का ध्यान करें।

भगवान के इस शान्त मनोरम स्वरूप का ध्यान करते हुए भाव करें कि होने वाला जीव प्रभु के समान शान्त, सौम्य, शोभायमान और मनोहर कान्ति युक्त हो। भगवान के ये सभी गुण वह जीव ग्रहण कर रहा है।

श्लोक 31 -
सुख एवं शान्ति का अनुभव होता है एवं मैत्री भाव जागृत होता है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ भाव करें कि प्रभु के मस्तक के ऊपर अत्यन्त सुन्दर चन्द्रमा के समान, सुन्दर श्वेत वर्ण वाले तीन छत्र हैं जिनमें मोतियों की सुन्दर झालरें लटक रही हैं। इन छत्रों ने सूर्य के की तीव्र गर्मी को प्रभु के ऊपर आने से रोक दिया है। इन छत्रों के नीचे विराजमान भगवान के स्वर्णिम स्वरूप की कल्पना करें। ऋषभदेव के ऊपर स्थित तीन छत्र बता रहे हैं कि प्रभु तीनों लोकों के स्वामी हैं। तीनों लोकों का स्वामी वही होता है जो तीन लोक के प्रत्येक प्राणी को शान्ति दे, तीन लोक में सुख का सृजन करे।

तीर्थंकर का जब जन्म होता है तब एक क्षण के लिए नरक में भी सुख हो जाता है, सारा कष्ट समाप्त हो जाता है। तीर्थंकर के निर्वाण के समय भी समग्र लोक में सुख, शान्ति व्याप्त होती है। मैत्री की धारा हृदय में प्रवाहित होती है।

ऐसे दिव्य स्वरूप की भावना करें और भावें कि आने वाला जीव अपने जीवन में सभी के लिए कल्याणकारी, सुख देने वाला एवं सभी के साथ मैत्री भाव सहित रहने वाला एक सौम्य, शान्त स्वभावी जीव होगा।

श्लोक 32 -
संसार में यश प्राप्ति का कारक है।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ कल्पना करें जैसे आकाश में देवता दुन्दुभि बजाते हुए शुभ सम्पत्ति प्रदाता प्रभु के द्वारा बताए कल्याणमार्ग के यश की घोषणा करते हैं, उसी प्रकार ऋषभदेव प्रभु के समान ही आने वाला जीव लोक कल्याण भावों से युक्त हो तथा उसका सुयश संसार की सभी दिशाओं में व्याप्त हो।

श्लोक 33 एवं 35 -
मनमोहक, मन-भावन सर्वप्रिय, सर्व हितकर आनन्द विभोर करने वाली सुस्पष्ट, कुशल विलक्षण समाधानकारी वाणी प्राप्ति का कारक।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः
इन श्लोकों के शुद्ध उच्चारण के साथ कल्पना करें कि समवसरण में प्रभु की दिव्य ओजस्वी वाणी को सभी प्राणी अपनी अपनी भाषा में समझते हुए आनन्द विभोर हो रहे हैं और उस वाणी को वे श्रद्धापूर्वक अपने आचरण में उतारकर अपने जीवन को सफल बनाते हैं। इन भावों को मन में भाते हुए विचारें कि आने वाला जीव प्रभु ऋषभदेव के समान ही सबका चित्त हरने वाली दिव्य मधुर वाणी वाला हो।

श्लोक 34 -
सौम्यता और तेजस्विता की प्राप्ति तथा जीवन में सुख-शान्ति का आगमन ।

गर्भावस्था के दौरान किया जाने वाला ध्यान प्रयोगः

इस श्लोक के शुद्ध उच्चारण के साथ कल्पना करें प्रभु के दिव्य स्वरूप का जिसका तेज हजारों सूर्य से भी अधिक होते हुए भी, उनका सामिप्य चंद्रमा जैसी शीतलता प्रदान कर रहा है। इन भावों के साथ भावना करें कि आने वाला जीव प्रभु के समान महान तेजस्वी स्वरूपवान हो जिसके सामिप्य से, साथ से सभी को आनन्द एवं शान्ति की अनुभूति हो।


भक्तामर स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण के वीडियो हमारे youtube channel -religiousraaga
पर जाकर आप देख सकते हैं। इसका लिंक नीचे दिया गया है-
 https://www.youtube.com/playlist?list=PLh19FvlD3BpoLMz4gSrdwX8uFqAKcsvwu

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Wednesday, 6 March 2019

श्लोक 23-24 के भाव एवं लाभ (आंतरिक शक्ति का जागरण एवं आत्मशुद्धि )

श्लोक 23 के भावः
 
जब भक्त अपने आराध्य से आत्मा से जुड़ जाता है तो भगवान भक्त के हृदय में समा जाते हैं। आचार्यश्री मानतुंग का हृदय भक्ति से परिपूर्ण था इसलिए उन्होंने ऋषभदेव के लिए इन दो श्लोकों में त्वाम् अर्थात् तुम से संबोधित किया।

आचार्यश्री कहते हैं - मुनिजन तुम्हें परम पुरुष कहते हैं (यहाँ मुनि का अर्थ ज्ञानी से है)। आपका बाह्य स्वरूप भी मनोहारी है और अंतरंग भी अत्यन्त अनुपम है। अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों ही उत्कृष्ट हैं, श्रेष्ठ हैं। इस उत्कृष्ठ काया और आत्मा के द्वारा आप वीतराग, केवली बने हैं। मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। इसलिए परम पुरुष हैं। आपकी दूसरी विशेषता है आदित्यवर्ण । सब रंग आपमें से ही निकलते हैं, इसीलिए आप अनुपम हैं, दोषरहित हैं, निर्मल हैं, तम से परे हैं। तुम्हारा सान्निध्य पाकर, मनुष्य वास्तव में मृत्यु को जीत लेता है। अमर हो जाता है, परमात्मा बन जाता है। इसीलिए तुम्हारे अतिरिक्त शिवपद - मोक्ष की प्राप्ति का दूसरा कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं है। तुम्हारी प्राप्ति, तुम्हारी सन्निधि एकमात्र मार्ग है।

इस श्लोक में आचार्यश्री ने भगवान् ऋषभदेव के आदित्यवर्ण अर्थात अरुण (उगते सूर्य सा लाल रंग)  रंग के रूप में आंतरिक शक्ति की विशेषता को बताया है। उन्हें निर्मल तथा तम (पाप) से परे बताया है। मोक्ष मार्ग प्रदाता बताया है।

इस श्लोक की नियमित साधना से आंतरिक शक्ति का जागरण एवं पापवृत्ति से मुक्ति प्राप्त होती है।आत्म कल्याण की ओर बढ़ते हैं।

श्लोक 24 के भावः
 
आचार्य श्री मानतुंगजी अगले श्लोक में कह रहे हैं - हे प्रभो ! आप अव्ययी (अविनाशी) हैं। महान ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं। एक अक्षर के अनन्त-अनन्त पर्यवों का ज्ञान है आपको, इसलिए आप अव्ययी हैं। आप अशरीरी हैं, मुक्त हैं इसलिए आप अविनाशी हैं। आप विभु हैं, व्यापक हैं, समर्थ हैं। अचिन्त्य हैं, आपकी महिमा असीमित है। आप असंख्य हैं, आपके गुण, विशेषता अगिनत हैं, कोई भी इनका आख्यान करने में समर्थ नहीं है। आप आद्य हैं। प्रथम तीर्थंकर हैं, प्रथम राजा हैं। आप ब्रह्मा हैं। आपने सृष्टि अर्थात् समग्र समाज व्यवस्था का सृजन किया है। आप ईश्वर हैं। अनन्त हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, चारित्र, शक्ति सामर्थ्य से सम्पन्न हैं। अनंगकेतु हैं। अनंग कामदेव को कहा गया है और केतु का उदय होता है तब क्षय, संहार होता है। अतः आप काम का क्षय करने वाले हैं। आप योगीश्वर हैं। आपने सारे योगों को जाना था, योगियों में प्रथम योगी हैं। अनेक हैं, अनेक भी हैं और एक भी हैं क्योंकि आप मुक्त हो गये हैं। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त होने के बाद भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। इस अपेक्षा से एकत्र अवगाहन की दृष्टि से आप एक हैं और स्वतंत्रता की दृष्टि से, आत्मा की दृष्टि से आप अनेक हैं। आप ज्ञानस्वरूप हैं। अज्ञान का सर्वथा क्षय होने के कारण आप ज्ञानस्वरूप हैं। आप अमल हैं। आपके रज और मल क्षीण हो गये हैं इसलिए आप अमल हैं।

इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव के विराट व्यक्तित्व के अनेकों गुणों का चयन कर आचार्यश्री ने एक नयनाभिराम माला गूंथी। यह श्लोक प्रभु की विशेषताओं का मनोरम वर्णन कर रहा है। इसमें भक्ति, ज्ञान और चरित्र तीनों का समन्वय है।

इस श्लोक का श्रद्धा एवं भावपूर्वक किया गया जप-ध्यान अंतर में इन सुन्दर गुणों की जागृति प्रारम्भ करता है। साधक आत्मशुद्धि की ओर बढ़ता है।

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Tuesday, 5 March 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 21-22 के भाव एवं लाभ (सौम्य सौभाग्य प्राप्ति एवं ज्ञान ज्योति का जागरण)


श्लोक 21 के भावः

भगवान श्री आदिनाथ की स्तुति का प्रवाह सतत् गतिशील है। आचार्य मानतुंगजी कह रहे हैं- मैंने हरि, हर आदि देवों को, जो अन्य दर्शनों के नायक हैं, पहले देख लिया यह अच्छा ही हुआ। अर्थात् मैंने हरि के दर्शन को पढ़ लिया, हर के दर्शन को पढ़ लिया । सभी अन्य दर्शनों को पढ़ने के बाद आपको पढ़ा तो मुझे परम संतोष मिला ।

आचार्यश्री कहते हैं - मैंने उन्हें पढ़ने के बाद आपका अनेकान्त दर्शन पढ़ा जिसके बाद अन्य कोई दर्शन अब मेरे चित्त का हरण नहीं करता। मैंने अनेकान्त दर्शन को पढ़ा तो परम संतोष का अनुभव हुआ। मुझे जो आनन्द और तृप्ति मिली, वह अपूर्व है, इसलिए अन्य दर्शनों के प्रति मेरा आकर्षण समाप्त हो गया।

आचार्य श्री मानतुंगजी ने अपनी अपूर्व संतुष्टि को कुछ इस स्वर में अभिव्यक्ति दी - मैंने एकांतवादी दर्शनों को देखा, समझा, अनुभव किया और उसके बाद अनेकान्त दर्शन को समझा। इसको समझने के बाद यह जाना कि अनेकान्त दर्शन में सारा समाधान उपलब्ध है। इसे जानकर हृदय शीतल हो गया। अब किसी भी अन्य दर्शन के प्रति मन आकृष्ट नहीं होता।

इस श्लोक में आचार्यश्री ने भगवान् ऋषभदेव के ज्ञान की विशेषता को प्रकट किया है। इस श्लोक की नियमित साधना से सौम्य सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
 
श्लोक 22 के भावः
 
आचार्यश्री अगले श्लोक में कह रहे हैं - प्रभु ! धन्य हैं आपकी माता, जिन्होंने ऐसे अनुपम पुत्र को जन्म दिया। सैंकड़ों-हजारों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु किसी माता ने ऐसे पुत्र को जन्म नहीं दिया, जो आपकी तुलना में आ सके। महापुरुषों के माता-पिता को भी धन्यवाद दिया जाता है। आचार्यश्री आगे कहते हैं - सब दिशाओं में नक्षत्र और तारे हैं । प्रकाश सभी दिशाओं में आता है, परन्तु सूर्य को सब दिशाएं उत्पन्न नहीं करती हैं। सूर्य को पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है। 

आचार्यश्री ने बहुत ही सुन्दर तुलना की है- प्रकाश होना एक बात है, प्रकाशपुंज को प्रकट करना दूसरी बात है। जब प्रकाशपुंज प्रकट होता है तो सभी दिशाएं प्रकाशित हो जाती हैं। माता मरुदेवा ने उस प्रकाशपुंज को जन्म दिया जससे पूरा अध्यात्म जगत् आलोकित हो गया। 

आचार्यश्री माँ और पुत्र दोनों की विशेषताओं को बता रहे हैं। गुणात्मक विश्लेषण कर रहे हैं। गुणों की स्तुति कर रहे हैं। माँ और पुत्र के अतुलनीय चरित्र को सामने रखकर आचार्यश्री ने एक ही वाक्य में सब कुछ कह दिया - किसी माँ ने आप जैसा पुत्र प्रसूत नहीं किया।

अनन्त गुणों के धारक प्रभु का ध्यान करते हुए उनकी माता के प्रति श्रद्धा नमन के साथ श्लोक 22 की साधना से अंतर में ज्ञान ज्योति का जागरण प्रारम्भ होता है। 

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Friday, 1 March 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 19 -20 के भाव एवं लाभ (दुर्लभ ज्ञानराशि स्रोत के उद्घाटक)




श्लोक 19 के भावः

आचार्य मानतुंगजी भगवान श्री आदिनाथ की स्तुति करते हुए भक्तिरस में सराबोर हो गये। वे भक्ति के उस शिखर पर पहुँच गये जहाँ भक्त को भगवान के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता। वे कहते हैंः हे नाथ ! रात में चन्द्रमा की क्या जरूरत है और दिन में सूर्य की क्या आवश्यकता है? क्यों ? क्योंकि जब आपका मुखारबिन्द तम का नाश कर रहा है तो फिर किसी अन्य प्रकाश की क्या आवश्यकता है ?  चन्द्रमा क्या आपके मुखारबिन्द से अधिक शीतलता अथवा शान्ति देगा ? सूर्य और चन्द्र की आभा आपके मुख की आभा से अधिक कान्तिमान् नहीं हैं।

एक सामान्य व्यक्ति चाँद और सूरज को निरर्थक नहीं कह सकता । किन्तु एक भक्त अपने भगवान में ही प्रकाश देखता है और भगवान में ही शान्ति का अनुभव करता है तब उसके लिए न अन्यत्र प्रकाश और न ही शान्ति की जरूरत होती है।

आचार्यश्री कहते हैं - चावलों की खेती पक जाने के बाद जल के भार से झुके हुए बादलों की हमें कोई जरूरत नहीं है। अर्थात् जब मुझे प्रकाश मिल गया, शान्ति मिल गयी और सबसे प्रमुख, प्रकाश और शान्ति देने वाले मेरे प्रभु मुझे मिल गये तो अब मुझे और क्या चाहिये ?
 
श्लोक 20 के भावः
 
इसी धारा में आगे बढ़ते हुए आचार्यश्री अगले श्लोक में कह रहे हैं - प्रभु ! आपमें ज्ञान का जो प्रकाश है, वह मुझे अन्यत्र दिखाई नहीं देता। अर्थात् आपने आत्मा का जो दर्शन दिया वैसा किसी ने नहीं दिया। ज्ञान का प्रकाश जैसा आपमें दिखाई दे रहा है वैसा अन्यत्र हरि-हर आदि में भी नहीं दिखता। आचार्यश्री यहाँ किसी की उपेक्षा नहीं कर रहे हैं न वे मात्र ऐसा श्रद्धावश या द्वेषवश कह रहे हैं। उन्होंने सभी दर्शनों का अध्ययन किया था उस आधार पर कह रहे हैं जैसा ज्ञान आपमें, एक सर्वज्ञ में, केवल ज्ञानी आत्मा में प्रस्फुरित हो रहा है, वैसा अन्य दर्शन में नहीं दिखाई देता। जो तेज मणि में होता है वह किसी काँच में नहीं दिखाई देता। काँच सूर्य की किरणों के प्रकाश से चमकता तो है पर जो आभा और कान्ति मणि में होती है वह काँच में नहीं पाई जा सकती। 

इन दोनों श्लोकों में आचार्यश्री ने ज्ञान और उसकी ज्योति की स्तवना की है।
 
इन दो श्लोकों के (19 एवं 20) श्रद्धापूर्वक जप-साधना से ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है।
 
श्लोक 12 से 20 तक के नौ श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान विकास की दृष्टि से ये बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं। इनकी श्रद्धा पूर्वक साधना से दुर्लभ ज्ञानराशि का स्रोत प्रकट हो सकता है।
 
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Saturday, 23 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 17-18 के भाव एवं लाभ



 श्लोक 17 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः प्रभु ! आप न कभी अस्त होते हैं, न राहु के द्वारा ग्रस्त होते हैं। संपूर्ण जगत को आप एक साथ प्रकाशित करते हैं। सघन बादल भी आपके इस महाप्रभाव को निरुद्ध नहीं कर सकते । हे मुनीन्द्र ! आपकी यह महिमा सूर्य से भी बढ़कर है।

आचार्यश्री ने सूर्य का विश्लेषण किया-सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है किन्तु अस्त भी होता है। सूर्य राहु के द्वारा ग्रस्त भी होता है और पूर्ण सूर्य ग्रहण में अन्धकार-सा छा जाता है। सूर्य एक बार में सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है। कहीं रात होती है तो कहीं दिन, इस प्रकार सूर्य का सर्वत्र एक समान प्रकाश नहीं होता है। बादलों के छा जाने पर सूर्य का तेज छिप जाता है। अतः भगवान ऋषभदेव की तुलना सूर्य से कैसे की जा सकती है? भगवान ऋषभदेव तो सूर्य से बहुत बढ़कर महिमा वाले हैं। 

अब इन तथ्यों पर यदि विचार करें कि प्रभु अस्त नहीं होते-केवलज्ञानी के सभी आवरण क्षीण हो जाते हैं। वह ज्ञान कभी अस्त नहीं हो सकता। दूसरा-प्रभु राहु से ग्रस्त नहीं होते। राहु छाया ग्रह है, छाया का वर्ण कृष्ण वर्ण माना गया है। पाप का भी वर्ण कृष्ण वर्ण है। प्रभु ने मोहनीय कर्म को पूर्णतः क्षीण कर दिया इसलिए आपको कोई दुष्कृत प्रभावित नहीं कर सकता। और पाप बन्ध नहीं हो सकता इसलिए आप राहु से कभी ग्रस्त नहीं होते। तीसरा- आपके ज्ञानावर्णीय और मोहनीय कर्म क्षीण हो चुके हैं अतः आपका ज्ञान सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। तीनों लोकों को एक साथ प्रकाशित कर रहा है। चौथा-प्रभु का ज्ञान मेघ द्वारा आच्छन्न नहीं है। अर्थात् प्रभु की शक्ति का विकास अनन्त है। इस शक्ति को कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता। 

जिसके ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय और अंतराय कर्मों को क्षीण कर दिया हो वह सूर्य से भी बढ़कर तेजस्वी होता है। आचार्यश्री कहते हैं - इसलिए प्रभु! मैं आपकी तुलना सूर्य से कैसे कर सकता हूँ। सूर्य आपके सामने बहुत छोटा है।

आचार्यश्री ने भाव कुछ इस प्रकार कहे हैं-जितनी धैर्यशीलता, आत्म-नियंत्रण की शक्ति बढ़ेगी उतने ही हम राग-द्वेष, कषायों से अप्रभावित रहेंगे, अविचलित रहेंगे।

श्लोक 18 के भाव-
इसी क्रम में अगले श्लोक में आचार्यश्री ने चन्द्रमा से तुलना करते हुए कहा है- प्रभु ! चन्द्रमा तो उदय भी होता है और अस्त भी। परन्तु आपका ओजमय मुखमण्डल रूपी चन्द्र सदा ही दैदिप्यमान रहता है। 

हजारों चन्द्र-सूर्यों से भी अधिक कान्तिमय आपकी आभा तीनों लोकों को प्रकाशित करती है। चन्द्रमा रात्रि का अन्धकार दूर करता है परन्तु आपका तेज मोह के महा अन्धकार को दूर करता है। 

चन्द्रमा बादलों की ओट में छिप जाता है किन्तु आपका प्रकाश तो सदा ही प्रकाशमान रहता है। आपकी निर्मल ज्योति को राग के बादल कभी नहीं ढक सकते। चन्द्रमा घटता बढ़ता है परन्तु आपका मुखचन्द्र सदा अनन्त कान्तिधारक है। 

इन दो श्लोकों के (17 एवं 18) श्रद्धापूर्वक जप-साधना से तृष्णा, दुःख, अशांति, घृणा, कुण्ठा - इन सभी विकारों से मुक्ति प्राप्त होती है और अन्तर ज्ञान ज्योति प्रकट हो, पवित्र जीवन स्रोत प्रारम्भ करती है।

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Sunday, 17 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 15-16 के भाव एवं लाभ (आध्यात्मिक उन्नति का महामंत्र)

 श्लोक 15 एवं 16 आध्यात्मिक उन्नति के महामंत्र कहे जाते हैं।

श्लोक 15 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः हे वीतराग! आपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति कर ली है, राग पर विजय प्राप्त कर ली है। जो प्रभावित होने की अवस्था है उसे समाप्त कर दिया। इस स्थिति में कोई निमित्त आपको विचलित नहीं कर पाए, फिर वे देवांगनाएं ही क्यों न हो। 

हवा तेज चले या धीमी वह प्राणी जगत् को प्रभावित करती है। तेज तूफानी हवाएं वृक्षों को उखाड़ सकती हैं तथा धरती पर अस्त-व्यस्तता फैला देती हैं। प्रलयंकारी तूफानों से छोटे पर्वत भी कंपायमान हो जाते हैं। परन्तु क्या प्रलयंकारी तूफानी हवाएं मंदराचल पर्वत को भी विचलित कर सकती हैं? नहीं, वह किसी प्रकार से विचलित नहीं होता। प्रभु, आपका धैर्य भी मंदराचल पर्वत की भाँति अप्रकंप है, अविचल है। आपका आत्मबल और कषाय-विजय इतने दृढ़ हैं कि राग का कोई भी हेतु आपको विचलित नहीं कर सकता तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

आचार्यश्री ने भाव कुछ इस प्रकार कहे हैं-जितनी धैर्यशीलता, आत्म-नियंत्रण की शक्ति बढ़ेगी उतने ही हम राग-द्वेष, कषायों से अप्रभावित रहेंगे, अविचलित रहेंगे।

अब आचार्यश्री प्रभु के सौन्दर्य से आगे बढ़ कर, गुणों की व्याख्या कर, स्तुतिपाठ को आगे बढ़ाते हैंः
जहाँ राग पर विजय होती है वहाँ ज्योति प्रकट होती है। राग-द्वेष और कषाय ये तमोगुण पैदा करने वाले तत्व हैं। वीतरागता अात्मा को प्रकाशित करने वाला तत्व है।
इसी आधार पर, श्लोक 16 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः हे प्रभु! आप ज्योतिर्मय हैं। प्रकाशमय दीप हैं जिसे न बाती की आवश्यकता है न तेल की और न ही जिसकी ज्योति किसी प्रकार का धूँआ प्रकट करती है। और जिसका प्रकाश तीनों जगत् को प्रकाशित करता है।

आचार्यश्री कह रहे हैं- प्रभु ! मैं एक दीपक से आपकी तुलना कैसे कर सकता हूँ क्योंकि दीपक सीमित क्षेत्र में ही प्रकाश करता है, हवाओं के प्रकंप से उसकी ज्योति काँप जाती है, बुझ जाती है, उससे धूँआ निकलता है, परन्तु आपकी ज्योति तो अप्रकंप है, सदा ही ज्योतिर्मय रहती है तथा निर्धूम है। आपका ज्ञान-प्रकाश अपूर्व है। आपके ज्ञान-प्रकाश से कहीं भी अंधकार नहीं रहता। आपका केवल ज्ञान तीनों लोकों को प्रकाशित करता है। 

इस प्रकार इन दो श्लोकों में (15 एवं 16) आचार्यश्री मानतुंगजी ने आंतरिक शक्ति का उद्भावन किया है। धैर्य विकास की वृद्धि करते हुए अविचलन एवं प्रकाश का संदेश दिया है। इन दोनों श्लोकों की श्रद्धापूर्वक ध्यान साधना अविचलन, इंट्यूशन पावर (अंतर्दृष्टि) के जागरण का कारक बनती है।

इस दिशा में ये दोनों श्लोक महामंत्र का कार्य करते हैं। ये दोनों श्लोक आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग हैं।

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Thursday, 14 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 13 -14 के भाव एवं लाभ



श्लोक 13 के भावः
आचार्य मानतुंगजी कहते हैंः संसार में मुख की सुन्दरता की उपमा चन्द्रमा से दी जाती है। परन्तु हे प्रभु! आपके मुख की उपमा किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती, क्योंकि आपका मुख दिन और रात में समान रूप मे निर्मल रूप में प्रकाशित रहता है। जबकि चन्द्रमा दिन के उजाले में पलाश के सूखे पत्ते के समान फीका, कान्तिहीन दिखाई देता है।

आपके मुख की दिव्यता देव, मनुष्य और नागेन्द्रों के नेत्रों को आकर्षित करने वाला और तीनों लोकों की समस्त श्रेष्ठ उपमाओं को जीतने वाला है। जो इसे एक बार देख लेता है वह बस देखता ही रह जाता है।
 
आचार्य कहते हैं कि चंद्रमा में कलंक लगा है, उसमें लांछन है, वह निर्लांछन नहीं है। उसकी शीतलता, प्रकाश सीमित समय के लिए ही है। परन्तु हे प्रभु! आपका मुख लो निर्लांछन है, सदा ही प्रकाशमान रहता है, उसकी शीतलता, सौम्यता, दिव्यता और तेज के समान कोई दूसरा तीनों जगत में नहीं है। इस जगत में मुख के लिए जितनी भी उपमाएं संभव हैं आपने उन सब को जीत लिया है।
 
इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में शान्ति एवं सौम्यता स्थापित होती है। एकाग्रचित्तता बढ़ती है।

अब आचार्यश्री प्रभु के सौन्दर्य से आगे बढ़ कर, गुणों की व्याख्या कर, स्तुतिपाठ को आगे बढ़ाते हैंः

श्लोक 14 में आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः
प्रभु ! मैं जहाँ भी देखता हूँ आपके गुण दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आपके गुण सारे संसार में, तीनों लोकों में फैल गये हैं ।

आचार्यश्री कहते हैं- हे प्रभु ! पूर्णिमा के संपूर्ण चन्द्र की कलाओं के समूह के समान शुभ्र हैं, तीनों लोकों में फैले हुए हैं। क्योंकि इन गुणों ने तीनों जगत् के स्वामी का आश्रय लिया हुआ है इसलिए इन्हें तीनों लोकों में फैलने से कोई नहीं रोक सकता।

तीनों लोकों का स्वामी कौन हो सकता है? इस विषय में कहा गया है-कि तुम अकिंचन बन जाओ। पूर्ण अपरिग्रही बन जाओ। जो पूर्ण अपरिग्रही है उसमें गुणों का विकास होता है। ये गुण फैलने वाले हैं। अतः संपूर्ण लोक में फैलते हैं। मेरा कुछ नहीं है इस सच्चाई को आत्मसात् करने वाले की सभी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। जहाँ मेरा घर या यह मेरा है के भाव हैं वहाँ सीमितता आ गई। सीमा में बंध गये। सब त्यागते ही असीमित हो गये, सब कुछ तुम्हारा हो गया।

शुद्ध भावना के साथ इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में त्याग और अपरिग्रह के सुन्दर गुणों का विकास होता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे)
E-mail : religiousraaga@gmail.com

Wednesday, 6 February 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 10-12 के भाव एवं लाभ



आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक “भक्तामर : एक अंतस्तल का स्पर्श में बहुत ही सुन्दर रूप में समझाया है कि “जैन दर्शन के अनुसार संसार अवस्था में भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है और मुक्त अवस्था में भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है।” 

श्लोक 10 के भावः
इसी दर्शन के आधार पर आचार्यश्री मानतुंगजी कहते हैंः हे भुवनभूषण भूतनाथ! आपमें विद्यमान वास्तवित विपुल गुणों का कीर्तन करने वाले भक्त यदि आप जैसे ही प्रभु बन जाते हैं तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। जो धनीमानी श्रीमन्त अपने आश्रित सेवकों को वैभव देकर अपने समान ही समृद्धशाली नहीं बनाता उस स्वामी की सेवा से सेवक को क्या लाभ है? 

पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण से आपकी स्तुति करने वाला आपके समान ही बन जाता है। जैन धर्म समानता को महत्व देता है। जहाँ समानता हो वहाँ सभी विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। भक्त जब प्रभु के सत्य, क्षमा, शील, संयम, संतोष जैसे सुन्दर गुणों की भावना करता हुआ तन्मयता पूर्वक स्तुति में लीन हो जाता है तो प्रभु के समान ही बनने लगता है। अंतर में दिव्य गुणों का सृजन होने लगता है। धीरे-धीरे भक्त प्रभु के स्वरूप को प्राप्त होता जाता है।

इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से आत्म विश्वास में वृद्धि तथा अंतर में सात्विक गुणों की जागृति प्रारम्भ हो जाती है।

श्लोक 11 में  आचार्यश्री मानतुंग कहते हैंः
प्रभु ! आपका अलौकिक स्वरूप अपलक देखने योग्य है। आप जैसे दिव्य स्वरूप के दर्शन कर लेने के पश्चात् न तो पलक झपकने का मन होता है और न ही आँखें अन्य किसी को देखकर सन्तुष्ट होती हैं क्योंकि यह स्वाभाविक ही है कि चन्द्रकिरणों के समान निर्मल और शीतल क्षीर सागर का मधुर जल पीने के बाद, लवण समुद्र का खारा जल पीने की इच्छा कौन करेगा?  अर्थात कोई नहीं। 

आचार्यश्री कहते हैं हे प्रभु ! जब तक आपको नहीं देखा था, तब तक अपने चारों ओर किसी प्रिय वस्तु को देखने की चाह में ये आँखें इधर-उधर दौड़ती रहती थीं। परन्तु आपको देखने के पश्चात् ये आप पर ही ठहर गयीं हैं। अब और कुछ देखने की इच्छा ही शेष नहीं रही। इनके लिए अब कोई अन्य आकर्षण ही नहीं रहा।

रूप रंग से भी अधिक, सबसे बड़ा आकर्षण होता है शान्ति का, आभामण्डल की पवित्रता का और वीतरागता का। शान्ति का स्रोत है कषायों का उपशमन। प्रभु की आत्मा का स्वरूप इतना सुन्दर है कि वह सौन्दर्य प्रभु के चारों ओर प्रकट हो रहा है।

इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना से मन में असीम शान्ति का अनुभव तथा मानसिक तनाव से पूर्ण मुक्ति होती है। 

श्लोक 12  के भावों को आचार्यश्री ने कुछ इस प्रकार प्रकट किया हैः

हे त्रिलोकीनाथ ! जिन शान्त सुन्दर मनोहर परमाणुओं से आपका शरीर निर्मित हुआ है, वे शुभ परमाणु संसार में उतने ही थे, क्योंकि समूचे संसार में आपके समान अन्य कोई दूसरा अलौकिक रूप मुझे दिखाई नहीं देता।
तीर्थंकर वह होता है जो पूर्ण रूप से शान्त होता है। तीर्थंकरों को क्रोध कभी आता ही नहीं है। महावीर, पार्श्वनाथ इनको अनेकों उपसर्ग आए परन्तु ये कभी विचलित नहीं हुए। शान्तरस के परमाणुओं से निर्मित आभामण्डल इतना पवित्र होता है कि उसे अपलक देखते रहने का ही मन होता है।

आचार्यश्री ने त्रिभुवनैकललामभूतः का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है आप तीनों लोकों में ललामभूत हैं। ललाम का एक अर्थ होता है तिलक। अर्थात आप तीनों लोकों में तिलक के समान सुशोभायमान हैं। जिनका शरीर शान्ति, पवित्रता, निर्मलता, वीतरागता और विशुद्ध लेश्या से प्रभावित होता है तथा जिनका आभामण्डल पवित्रतम हो, वह वास्तव में सबसे सुन्दर हो जाता है।

इस श्लोक की श्रद्धा पूर्वक साधना-स्तुति कषाय शान्ति का कारक बनती है।

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Wednesday, 23 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 7 - 9 के भाव एवं लाभ



कहा जाता है - ध्यान की साधना करने वाला ढाई मिनिट में जितने कर्मों को क्षीण करता है, तपस्या करने वाला लम्बे समय में भी उन कर्मों को क्षीण नहीं कर पाता। जिसके जीवन में ध्यान की साधना है, वहाँ समता का उदय होता है। इसी गहन बात को आचार्यश्री मानतुंगजी ने बहुत ही सुन्दर तरीके से सातवें , आठवें तथा नवें श्लोक में समझाया है।

श्लोक सात के भावों को समझते हैं। आचार्यश्री कह रहे हैं- हे प्रभु ! आपकी स्तुति से प्राणियों के अनेक जन्म-परंपरा से बंधे हुए पापकर्म क्षण भर में क्षय हो जाते हैं। जैसे संसार में व्याप्त भौरों के समान गहन काला अंधकार सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है।

इतना सघन और इतना गहरा अन्धकार एक सूर्य के आगमन से नष्ट हो सकता है तो फिर भगवान ऋषभदेव की साधना, आराधना और स्तुति करने वाले व्यक्ति के भीतर प्रकाश क्यों नहीं जागृत होगा? उसके भीतर जो भी अंधकार रूपी पाप संचित है, वह क्षण में नष्ट क्यों नहीं हो सकता? अर्थात् जो प्रभु ऋषभदेव की आराधना पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से करता है वह जन्म-परंपरा से संचित पापकर्मों से मुक्त होने लगता है। वह पापों से मुक्त हो जाता है। सूर्य का प्रकाश इतना तेज होता है कि उसके उदय होने पर अन्य सभी ग्रह-नक्षत्रों का तेज उसमें विलीन हो जाता है। इसी प्रकार प्रभु की साधना में लीन व्यक्ति के जीवन में, प्रभु के तेज के दिव्य प्रभाव से, सभी व्यवधान समाप्त हो जाते हैं।

श्लोक सात के भक्ति पूर्वक साधना से जन्म-परंपरा से बंधे हुए पाप क्षीण होना प्रारम्भ हो जाते हैं। और हम अात्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने लगते हैं। आत्मा में शुभ भावों की जागृति के साथ ही आत्मोद्धार, कल्याण मार्ग प्रशस्त होने लगता है। जीवन के कष्ट, व्यवधान सभी दूर होने लगते हैं। क्योंकि सभी व्यवधानों, कष्टों का मूल कारण जन्म-परंपरा से आत्मा के साथ बंधे हुए पापकर्म ही तो होते हैं।

श्लोक आठ में आचार्यश्री कह रहे हैं- हे प्रभु! मैं अल्प बुद्धि होते हुए भी, मेरे द्वारा रचित यह स्तोत्र आपके प्रभाव से, सज्जनों के चित्त का हरण करने वाला होगा, ऐसा मानकर मेरे द्वारा आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जा रहा है। जैसे कमलिनी के पत्तों पर पड़ी हुई पानी की बूंद भी उन पत्तों के प्रभाव से मोती के समान शोभा पाती है।

आचार्यश्री कहते हैं मेरे द्वारा की जा रही स्तुति रचना सामान्य है फिर भी वह विद्वानों का चित्त हरण कर लेगी क्योंकि मेरा आराध्य पूर्ण सामर्थ्यवान है, अनन्त शक्ति का धारक है। और जिसका हम संसर्ग करते हैं उसका प्रभाव होना तो निश्चित ही है। 

जैसे पानी की साधारण बूंद यदि गर्म लोहे के संपर्क में आती है तो पता ही नहीं चलता किधर गई, और उसी पानी की बूंद कमलिनी के पत्ते पर गिरकर मोती के आकार में दिखाई देती है। यह उस कमलिनी के पत्ते का प्रभाव ही तो है।

श्लोक आठ के भक्ति पूर्वक साधना से अरिष्ट योग समाप्त हो जाते हैं। आपत्ति, विपत्ति के योगों से मुक्ति मिलती है।

स्तवन वह होता है जिसके प्रभाव से समस्त दोष दूर हो जाते हैं। स्तवन से अज्ञान का नाश होता है। मिथ्या दृष्टिकोण दोष दूर होता है। अनाचार समाप्त होता है और चारित्र का लाभ मिलता है और दुर्लभ बोधि सुलभ हो जाती है।

हमारे मन में प्रश्न उठता होगा कि समस्त दोषों का नाश कैसे होता है? इसका उत्तर है- जिस गुण की चर्चा करें, बार बार ध्यान करें वही गुण हमारे अंतर में प्रविष्ट हो जाता है और अंतर से अवगुण समाप्त होने लगते हैं। यह योग का गुण-संक्रमण का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।

आचार्यश्री, श्लोक नौ के माध्यम से कह रहे हैं- प्रभु! आपकी स्तुति तो बहुत बड़ी बात है, आपके केवल नाम उच्चारण से ही संसारी जीवों के समस्त पापों का विनाश हो जाता है। सूरज धरती से अनन्त ऊँचाई पर होते हुए भी उसकी एक नन्हीं-सी किरण भी सरोवर में स्थित कमल को विकसित कर देती है।

अर्थात् आपकी चर्चा सूर्य की प्रभा जैसी है और आपका स्तवन तो प्रत्यक्ष रविमंडल ही है। आचार्यश्री प्रभु के स्तवन को सूर्य के समान मानते हुए कहते हैं कि उनकी एक किरण भी प्राप्त हो जाए तो मेरा हृदय-कमल विकसित हो जाएगा। 

सूर्य की एक छोटी-सी किरण का प्रभाव है कि वह धरती पर हजारों-लाखों कमलों को विकसित कर देती है। इसी प्रकार प्रभु की पूर्ण भक्ति भाव से की गयी चर्चा मनुष्य के पापों को क्षय करने का अनन्त सामर्थ्य रखती है।

श्लोक नौ की भक्ति पूर्वक साधना, पापों का क्षय करती है तथा मनोकामनाओं की पूर्ति का कारक सिद्ध होती है। मन में पवित्र भावों की जागृति प्रारम्भ होती है।

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Monday, 14 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 5 एवं 6 के भाव एवं लाभ


श्लोक पांच के भावों को समझते हैं।

आचार्यश्री मानतुंगजी प्रभु आदिनाथ की भक्ति में पूर्णतः तल्लीन हो गये । वे बोले- हे मुनीश ! शक्तिहीन होते हुए भी मैं केवल आपकी भक्ति से प्रेरित होकर आपका यह स्तवन करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। जैसे प्रीति के कारण हिरणी भी अपनी शक्ति का विचार किये बिना ही अपने शिशु की रक्षा करने के लिए क्या सिंह के सामने नहीं कूद पड़ती है?

उन्होंने विचार किया कि मुझे डरने की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि मैं तो उस प्रभु की भक्ति कर रहा हूँ जो त्रिलोक स्वामी हैं। मैं अपनी बुद्धि की अल्पता का क्यों भान करूँ? मेरी तो भक्ति ही मेरा सहारा बनेगी। उसी के सहारे मैं स्तुति करूंगा।

इस श्लोक में आचार्यश्री के भक्तिपूर्ण समर्पण का अनुभव किया जा सकता है। जब भक्त पूर्ण श्रद्धा से अपने आराध्य की भक्ति में लग जाता है तो उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। अपने शक्तिहीन होने की भावना के ऊपर वह विजय प्राप्त कर लेता है। 

यही भक्ति भावना हमारे आत्मिक साहस वृद्धि का कारक बनती है। इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से अंतर में हर परिस्थिति से सामना करने का साहस जागृत होता है। स्वयं की आत्मशक्ति पर विश्वास तथा अदम्य साहस के साथ सफलता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
 
श्लोक 6
आचार्यश्री श्रद्धा और भक्ति के साथ आगे कह रहे हैं- हे प्रभु ! भले ही ज्ञानी, विद्वान पंडित मेरे इस प्रयास की हँसी उड़ाएं, मेरा उपहास करें परन्तु मैं तो आपकी स्तुति करूंगा। यह आपकी भक्ति का ही प्रताप है जो मुझे आपकी स्तुति करने को वाचाल कर रही है। विवश कर रही है। जैसे वसंत ऋतु में कुहूकती, कोयल की मधुर एवं सुरीली कुहुक का कारण निश्चय रूप से आम की मंजरियों का समूह ही होता है। 

आचार्य श्री में भक्ति का संवेग प्रबल हुआ। संवेग और बुद्धि के प्रारंभिक द्वन्द को पार कर आचार्यश्री प्रभु की स्तुति में तन्मय हो गये। 

इस समर्पण भाव को जब हम अपने अंतर में अनुभव करते हैं, अपने आप को सरलता से समर्पित करते ही हमारे अंतर के अहं का समापन हो जाता है और सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन की जागृति प्रारम्भ होने लगती है।इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से अंतर में ज्ञान जागृति का प्रारम्भ हो जाता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में तथा इनके भावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। -राजेश सुराना (पुणे) 
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Tuesday, 8 January 2019

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 4 के भाव एवं प्रभाव




आचार्यश्री मानतुंगजी ने स्वयं को प्रभु के चरणों में बालक के रूप में प्रस्तुत कर दिया। बालक में समर्पण होता है। निश्छलता होती है। उन्हीं भावों से पूर्ण श्रद्धा से वे प्रभु की स्तुति में तल्लीन हो गये।

आचार्यश्री आगे कहते हैं- प्रभु!
मैं आपके अनन्त गुणों की स्तुति नहीं कर सकता। जब देवताओं के गुरु बृहस्पति के समान बुद्धि वाले भी आपके गुणों की स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं तो और कौन ऐसा करने में समर्थ है? 

क्या कोई व्यक्ति अपनी भुजाओं से प्रलयंकारी समुद्र, जिसमें मगरमच्छों का समूह उछालें भर रहा हो, तैर कर पार करने में समर्थ हो सकता है? कदापि नहीं।

वैसे ही आपके अनन्त गुणों की स्तुति कौन करने में समर्थ है? जब बृहस्पति के समान बढ़े से बढ़ा व्यक्ति भी आपके अनन्त गुणों की स्तुति करने में सक्षम नहीं तो मेरी अक्षमता क्या महत्व रखती है?

इन्हीं विचारों के साथ आचार्यश्री ने भक्ति पूर्वक प्रभु की स्तुति आरम्भ की। एक नये आत्मविश्वास के साथ कि मैं प्रभु के अनन्त गुणों की स्तुति का सामर्थ्य नहीं रखता परन्तु भक्ति में मैं कैसे भी कम नहीं हूँ।

आचार्यश्री नें इस श्लोक के माध्यम से अपने आत्म सामर्थ्य को पहचानने का, उसपर विश्वास का संदेश दिया है। जब हम पूर्ण विश्वास के साथ भक्ति पूर्वक परमात्मा को समर्पित होते हैं तो अपनी आत्मा के साथ परमात्मा का, प्रभु का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जिसके महाप्रभाव से हमारे अंतर में प्रभु के प्रति भक्ति की धारा प्रवाहित होने लगती है जो विश्वास की नयी ज्योति जागृत करती है। 

इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से आत्म विश्वास जागृत होता है।स्वयं की आत्मशक्ति पर विश्वास अर्थात् कार्यों में पूर्ण विश्वास के साथ सफलता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।


यदि आप प्रथम चार श्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। - राजेश सुराना (पुणे) E-mail : religiousraaga@gmail.com

Sunday, 6 January 2019

भक्तामर स्तोत्र ः श्लोक 3 भाव एवं फलश्रुति



आशा है प्रथम दो श्लोक के भाव आपने पढ़े और समझे होंगे। आज तीसरे श्लोक के विषय में जानेंगे।

आचार्यश्री ने समर्पण भाव से प्रभु के चरणों में वन्दन करते हुए उन दिव्य चरणों का आलम्बन लिया। संकल्प किया कि मैं प्रभु ऋषभदेव की स्तुति करूँगा। संकल्प के साथ ही आचार्यश्री ने मनन किया कि बुद्धि में मैं इन्द्र अथवा अन्य ज्ञानियों जैसा बुद्धिमान तो नहीं हूँ। फिर भी मैं प्रभु की स्तुति करूँगा अतः उन्होंने स्वयं को प्रभु के चरणों में स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर दिया।

आचार्य कहते हैं प्रभु! बुद्धि की कमी मेरे लिए खेद का विषय नहीं है क्योंकि मैं आपके समक्ष स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।मैंने अपनी बुद्धि को तोला नहीं और आपकी भक्ति का संकल्प कर लिया। मैं आपके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हूँ। मेरा यह स्तुति करने का क्रम उस बालक जैसा ही है जो जल में चन्द्रमा के बिम्ब को पकड़ने की चेष्ठा करता है। उसकी इस बाल चेष्ठा पर कोई नहीं हंसता बल्कि उसका कौतुक करते हैं। मेरे द्वारा आपके अनन्त गुणों का गुणगान बालचेष्ठा समान ही तो है। बालक सरल भाव से जैसे यह कार्य करता है उसी प्रकार मैं भी पूर्ण समर्पण से सरलता पूर्वक आपकी स्तुति कर रहा हूँ।

इस श्लोक के भक्ति पूर्वक जप-साधना से मैत्री भाव जागृत होता है।
प्रथम तीनश्लोकों के दिव्य प्रभावों के विषय में और अधिक जानने की आप जिज्ञासा रखते हैं तो आप ईमेल पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं।  -राजेश सुराना (पुणे)
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Tuesday, 1 January 2019

भक्तामर स्तोत्र : उच्चारण विधि एवं श्लोक 1 & 2 के भाव



नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं!

भक्तामर स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण की टैक्नीक हमनें अपने religiousraaga channel पर देना प्रारम्भ किया है। आप वहाँ से शुद्ध उच्चारण को सीख-समझ सकते हैं।इसकी Link नीचे भी दी गयी है।

आचार्य मानतुंगसूरिजी ने इस स्तोत्र में प्रभु आदिनाथ के गुणों और रूप की अत्यन्त अनुपम व्याख्या की है। इनके भावों को जब गहनरूप में जानने का प्रयास करते हैं तो अंतर में एक दिव्यता का अनुभव होने लगता है।

प्रथम दो श्लोक युग्म श्लोक कहे जाते हैं जिनमें आचार्यश्री ने प्रभु को विनयपूर्वक वन्दन् किया है। तथा प्रभु के दिव्य चरणों के गुणों को समझाया है। आचार्य कहते हैं - मैंनें प्रभु ! आपके दिव्य चरणों के स्पर्श से देवों के मुकुटों की मणियाँ प्रकाशित हो उठीं। अर्थात् आपके दिव्य चरणों के पावन स्पर्श मात्र से अंतर के कषाय रूपी अन्धकार का पूर्ण नाश हो जाता है। और आत्मा अपने शाश्वत दिव्य गुणों से प्रकाशित हो उठती है। मैंने आपके उन दिव्य चरणयुगल का आलम्बन लिया है। मेरे अंतर के सभी कषाय-पाप समाप्त हो गये अतः निश्चय ही मेरे भव-भव के पाप-कर्म क्षीण हो गये हैं।

यदि हम प्रभु के चरणों में पूर्ण भाव से अपने आप को समर्पित करते हैं और विनयपूर्वक वन्दन करते हैं तो हमारे सभी पूर्व संचित पाप-कर्म क्षीण हो जाते हैं। हम जो भी कष्ट आदि भोगते हैं वह हमारे ही संचित पाप-कर्मों का प्रतिफल ही है।

प्रथम श्लोक का विनयपूर्वक,  नीचे दिये गये भावों के साथ यदि नियमित सुबह उठते ही, पठन करते हैं तो कुछ ही महीनों में हम अनुभव करेंगे कि हमारी विपदाएं, रुकावटें, तकलीफें स्वतः ही दूर हो रही हैं।


भाव इस प्रकार हैंः हे जिनेश्वर ! मैं पूर्ण भक्तिपूर्वक, समर्पित होकर, आपके दिव्य चरणों में वन्दन्, नमन कर रहा हूँ। मैंने अपने आपको आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। आपके दिव्य चरणों का सहारा लिया है। आपके दिव्य प्रभाव और आशीर्वाद से मेरे अंतर के समस्त कषाय समाप्त हो रहे हैं, मेरी आत्मा ज्ञान ज्योति से प्रकाशित हो रही है, मैं दिव्य आत्म शक्ति का अनुभव कर रहा हूँ। मेरे भव-भव के संचित पाप-कर्म समाप्त होते जा रहे हैं।

द्वितीय श्लोक के भाव इस प्रकार हैंः हे प्रभु! मैं इन्द्र जितना ज्ञानी नहीं हूँ फिर भी मैं आपकी स्तुति का संकल्प करता हूँ। क्योंकि मैं भी आपका भक्त हूँ। 

इस श्लोक का पूर्ण भक्तिभाव से नियमित भाववन्दन् स्वयं में विश्वास एवं दृढ़ संकल्प शक्ति की जागृति करता है।
 

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